मारवाड़ का राठौड़ वंश

राठौड़ शब्द की उत्पत्ति राष्ट्रकूट शब्द से हुई है। औरंगजेब की मृत्युं तक अपने को स्वतंत्र रखने का प्रयास करने वाला राजपूत राज्य मारवाड़ राज्य था, तो मारवाड़ की संकटकालीन राजधानी ‘सिवाना दुर्ग’ थी। मारवाड़ के वे सामंत जिन्हें राजा का निकट संबंधी होने के कारण तीन पीढ़ियों तक चाकरी और रेख देने से मुक्त रखा जाता था, वे राजवी सामंत कहलाते थे, तो सरदार, मुत्सदी,सियारत और गनायत यहाँ के सामंतों की अन्य श्रेणीयाँ थी। मारवाड़ में वीरता, साहित्य,सेवा के लिए ‘सिरोपाव’ देने की परम्परा रही थी, जिसमें सर्वोच्च हाथी सिरोपाव था, तो ‘मुगल बादशाह अपनी विजयों में से आधी के लिए राठौड़ो की एक लाख तलवारों के अहसानमन्द थे।’ यह कथन जर्नल टोड ने कहा।

रावसीहा(1240-1273ई.)- इन्होंने मारवाड़ के राठौड़ों का संस्थापक/मूल पुरूष/आदि पुरूष’ कहते हैं।
राव चूड़ा (1394-1423ई.)- यह वीरमदेव का पुत्र था। चूड़ा मारवाड़ के राठौ़ड़ों का प्रथम प्रतापी शासक था, जिसने प्रतिहारों की इन्दा शाखा के राजा की पुत्री किशोर कुँवरी से विवाह किया, जिसके बदले में उसे मण्डौर दुर्ग दहेज में मिला। इन्‍होंने मण्डौर को अपनी राजधानी बनाया।
कान्हा (1423-1427ई.)- चूड़ा की छोटी मोहालाणी रानी किशोर कुँवरी का पुत्र था। यह उत्‍तराधिकारी न होते हुए भी चूड़ा ने इसे राजा बनाया।
रणमल (1427-1438ई.)- यह चूड़ा की पटरानी सोनगरी रानी चाँद कँवर का बड़ा पुत्र था, जब इसे राजा नहीं बनाया गया तो यह मेवाड़ के राणा लक्षसिंह की शरण में चला गया जहाँ उसे ‘धणला’ की जागीर प्राप्त हुई। रणमल राठौड़ ने अपनी बहन हंसाबाई का विवाह सशर्त (हंसाबाई का उŸाराधिकारी मेवाड़ का शासक बने) राणा लाखा से कर दिया। मेवाड़ के मोकल (भाँजा) की सहायता से कान्हा को पराजित का मारवाड़ का राजा बन गया। इसकी हत्या मेवाड़ी सरदारों ने (ख्यातों के अनुसार कुम्भा के काल में रणमल की प्रेमिका भारमली ने शराब में विष मिलाकर हत्या) की।
राव जोधा (1438-1489ई.,लगभग 50 वर्ष)- यह रणमल (पिता) व कोड़मदे (माता) का पुत्र था, जिसने 12 मई, 1459 ई. में जोधपुर नगर बसाकर चिड़िया टूंक पहाड़ी पर मेहरानगढ़ दुर्ग बनवाया। इसने जोधपुर को अपनी राजधानी बनाया। मण्डौर के सिंहासन के लिए राव जोधा ने राणा कुंभा के साथ भयंकर लड़ाई की थी।
राव गंगा (1515-1532 ई.) –इन्होंने 1527 के खानवा के युद्ध में अपने पुत्र मालदेव के साथ साँगा की सहायता की क्योंकि साँगा की पुत्री पद्मावती इनकी पत्नी थी। इनके पुत्र मालदेव ने इनको महल की खिड़की से गिराकर इनकी हत्या कर दी अतः मालदेव ‘मारवाड़ का पितृहन्ता’ कहलाता हैं।
राव मालदेव (1532-1562ई.)- यह राव गंगा का पुत्र था जिसका राज्याभिषेक सोजत(पाली) में हुआ। इसे फारसी इतिहासकारों ने ‘हसमत वाला शासक’ तथा फरिश्ता व बदायूनी खाँ ने ‘भारत का महान पुरुषार्थी राजकुमार ’ कहा है। मालदेव मारवाड़ का सबसे योग्य व प्रतापी शासक था, जिसे 52 युद्धों का नायक और 18 परगनों के रूप में प्रतिष्ठित माना गया। इसने 1541 में ‘पहोबा/साहेबा के युद्ध’ में बीकानेर के राव जैतसी को हराया।
5 जनवरी, 1544 ई. में ‘गिरी सुमेल/जैतारण /सुमेलगिरी के युद्ध’ में शेरशाह सूरी ने बड़ी मुश्किल से मालदेव की सेना को पराजित किया, तब सूरी को कहना पड़ा कि‘एक मुट्ठी भर बाजरी के लिए मैं हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता’। इस युद्ध में राव मालदेव बिना लड़े ही युद्ध क्षेत्र से प्रस्थान कर गए। बीकानेर के राव कल्याणमल व मालदेव के पूर्व सामंत वीरमदेव ने गिरी सुमेल युद्ध में शेरशाह सूरी की सहायता की थी।
राव मालदेव का विवाह जैसलमेर के शासक राव लूणकरण की पुत्री उमादे के साथ हुआ। इसी उमादे को इतिहास में ‘रूठी रानी’ के नाम से जाना जाता है। मालदेव ने सोजत का दुर्ग (पाली), पोकरण का दुर्ग (जैसलमेर), मालकोट का किला (मेड़ता नागौर), शेरगढ़ का दुर्ग (धौलपुर) का निर्माण करवाया। ध्यातव्य रहे- चौसा का युद्ध शेरशाह सूरी व हुमायूँ के मध्य हुआ था।
राव चन्द्रसेन (1562-1581ई.)- मालदेव ने अपने पुत्रों राम, उदयसिंह व चन्द्रसेन (तीसरे नम्बर की सन्तान) में से चन्द्रसेन को अपना उŸाराधिकारी नियुक्ल किया। अकबर ने 3 नवम्बर, 1570 ई. को नागौर दरबार लगाया जिसमें चन्द्रसेन नागौर पहुँचकर बिना अकबर के अधीनता स्वीकार किए वापस जोधपुर पहुँचा। अकबर ने नाराज होकर हुसैन कुली खाँ को जोधपुर पर आक्रमण के भेजा। चन्द्रसेल जोधपुर से भागकर भद्राजूण(पाली) पहुँचा। अकबर ने जोधपुर का प्रशासन 30 अक्टूबर, 1572 ई. को बीकानेर के रायसिंह को सौंपा। इन्होंने जीवन भर अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की, इसी कारण इन्हें ‘मारवाड़ का प्रताप/प्रताप का अग्रगामी/भूला-बिसरी राजा/विस्मृत नायक’ आदि नामों से जाना जाता हैं। 1574 ई. में चन्द्रसेन के विद्रोही होने पर अकबर ने उसे दण्ड देने के लिए बीकानेर के रायसिंह को भेजा था। राव चन्द्रसेन की मृत्यु 11 जनवरी, 1581 ई. को सोजत दुर्ग पाली के पास ‘सरणवा’ नामक स्थान पर हुई, जहाँ उनकी समाधि बनी हुई है। ध्यातव्य रहे- अकबर का आजीवन प्रतिरोध करने वाले प्रथम शासक चन्द्रसेन थे। राव चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद जोधपुर राज्य तीन वर्ष तक खालसा (1581-1583ई.) रहा। तीन वर्ष बाद अकबर द्वारा उदयसिंह को मारवाड़ राज्य का अधिकार खिलअत और खिताब सहित 1583 ई. में दे दिया गया।
राव उदयसिंह (1583-1595ई.)- इसे मोटा राजा कहा जाता है। इसने अपनी पुत्री मानबाई/भानमती/जगतगोंसाई/मल्लिका-ए-जहाँ की शादी 1587 ई. में सलीम/जहाँगीर से कराई जिनसे खुर्रम/शाहजहाँ पैदा हुआ। उदयसिंह मारवाड़ का प्रथम शासक था जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार उनसे वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए। ध्यान रहें- 1605 ई. में अकबर ने राजा सूरसिंह को सवाई राजा की उपाधि से सम्मानित किया। जोधपुर के महाराजा गजसिंह (प्रथम) का कार्यकाल 1619-1638 ई. तक रहा। जहाँगीर ने ‘दलथम्भन’ (फौज को रोकने वाला) की पदवी जोधपुर के शासक के शासक महाराजा गजसिंह को दक्षिण भारत में मलिक अम्बर की सेनाओं पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष में प्रदाल की थी।
जसवंत सिंह-1 (1638-1678ई.)- 1638 ई. में मुगल सम्राट शाहजहाँ ने जसवंतसिंह को खिलअत, जड़ाउऊ मजधर एवं टीका दिया तथा उसे 4000 जात एवं 4000 सवार का मनसब देकर मारवाड़ का शासक स्वीकार किया। इनका राज्याभिषेक आगरा में हुआ। उस समन जसवंत सिंह प्रथम का संरक्षक ठाकुर राजसिंह कूम्पावत था। शाहजहाँ ने इसे ‘महाराजा’ की उपाधि दी । महाराजा जसवंत सिंह (जोधपुर) ने सिद्धांत बोध, आनंद विलास और भाषा भूषण जैसी पुस्तकें लिखी। शाहजहाँ के उŸाराधिकारी युद्ध 15 अप्रैल,1658 ई. में धरमत का युद्ध (मध्यप्रदेश) तथा 5 जनवरी, 1659 में दोराई का (अजमेर) दाराशिकोह व औरंगजेब के मध्य हुआ, जिसमें जसवंह सिंह ने दाराशिकोह का साथ दिया परन्तु दोनों युद्धों में औरंबजेब जीता। जसवन्त सिंह की अफगानिस्तान के जमरुद नामक स्थान पर 1678 में मृत्यु हो गई। इनकी मृत्यु होने पर औरंगजेब ने कहा ‘आज कुफ्र/धर्म विरोधी दरवाजा’टूट गया है। ध्यान रहे- 1679 में औरंगजेब ने इन्द्रसिंह को मारवाड़ का शासक नियुक्त किया था।
अजीतसिंह (1678- 1724ई.)- मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के समय मारवाड़ का शासक अजीतसिंह था जो जसवंत सिंह प्रथम का पुत्र था।
गोराधाय ने सन् 1679 में मेहतरानी का वेश धारण कर गोपनीय रूप से हवेली में पालने से कुँवर अजीतसिंह को कालबेलिया बने मुकुन्ददास खींची को सौंप दिया। मुकुन्ददास खींची ने इनको चुपके से दिल्ली से निकालकर सिरोही राज्य के कालिन्दी मन्दिर में छिपा दिया। जयदेव नामक ब्राह्मण के धर पर इनकी परवरिश की तथा वयस्क होने पर प्रकट किया। इस कार्य में मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने बड़ी सहायता करी।
मारवाड़ के राठौड़ों ने दुर्गादास राठौड़ (जसवन्तसिंह के मंत्री आसकरण का पुत्र जिन्हें ‘मारवाड़ का चाणक्य/मारवाड़ का अण बिन्दिया मोती/राठौड़ों का यूलिसैस’ के नाम से जाना जाता है) के नेतृत्व में अजीतसिंह को राजा बनाने के लिए मुगलों के विरुद्ध सफलतापूर्वक एक लम्बा संघर्ष किया परन्तु अजीतसिंह ने राजा बनने के बाद दुर्गादासजी को ही राज्य से बाहर निकाल दिया। मारवाड़ से निष्कासन के बाद मेवाड़ के शासक के शासक अमरसिंह द्वितीय ने दुर्गादासजी को विजयपुर की जागीर दी तथा बाद में उन्हें रामपुरा का हाकिम नियुक्त किया। अजीतसिंह ने अपनी पुत्री इन्द्र कुमारी का विवाह फर्रुखशियार के साथ किया। अजीतसिंह के अभयसिंह (बड़ा) व बख्तसिंह (छोटा) दो पुत्र थे। छोटे पुत्र बख्तसिंह ने सोते हुए अजीतसिंह की हत्या कर दी अतः बख्तसिंह ‘मारवाड़ का दूसरा पितृहंता’ कहलाता है। इतिहासकार गोरीशंकर हीराचंद ओझा ने मारवाड़ के अजीतसिंह को ‘कान का कच्चा’ कहा है।
मानसिंह (1803-1843ई.)- इन्हें ‘सन्यासी राजा’ कहा जाता है। इनके राजगुरु गोरखनाथ सम्प्रदाय के आयस देवनाथ थे। इन्होंने जोधपुर में महामन्दिर (नाथ सम्प्रदाय की मुख्य पीठ) बनवाया। जोधपुर किले में ‘पुस्तक प्रकाश’ पुस्कालय की स्थापना मानसिंह ने की। जोधपुर के महाराजा मानसिंह के दरबारी कवि बांकीदास थे। इन्होंने 6 जनवरी, 1818 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ संधि कर ली। मानसिंह राठौड़ व जगतसिंह द्वितीय के मध्य कृष्णा कुमारी के कारण ‘गींगोली का युद्ध’ हुआ।
महाराजा तख्तसिंह (1843-1873ई.)- महाराजा मानसिंह के कोई उŸाराधिकारी न होने के कारण उन्होंने ब्रिटिश सरकार की अनुमति से तख्तिंसंह को गोद लिया था। 1 दिसम्बर, 1843 ई. को जोधपुर में तख्तसिंह का राज्यभिषेक हुआ, जिसमें पॉलिटिकल एजेंट लार्ड लुडलो भी शामिल हुआ था। सिंहासन पर बैठते ही तख्तसिंह ने नाथों के विद्रोह को शान्त किया। इसने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों की मदद की, तो वहीं एरिनपुरा की छावनी के विद्रोही सैनिकों के आउवा पहुँचने पर तख्तसिंह ने बिथौड़ा अपनी सेना भेजी।8 सितम्बर, 1857 को लड़े गये बिठौड़ा के युद्ध में सेनानायक ओनाड़सिंह व राजमल मारे गए थे। तख्तसिंह ने राजपूत जाति में होने वाले कन्यावध को रोकने के कठोर आज्ञायें प्रसारित की तथा इन आज्ञाओं को पत्थरों पर खुदवाकर मारवाड़ के समस्त किलों पर लगवाया गया। 1870 ई. में अंग्रेजों ने जोधपुर राज्य के साथ नमक संधि की।
महाराजा जसवन्तसिंह द्वितीय(1873-1895ई.)- यह पूर्णतया अंग्रेजों का समर्थक था, जिसने 1875 ई. के कलकत्‍ता दरबार में तथा 1877ई. के दिल्ली दरबार में भाग लिया था। इसने 1879 ई. में अंग्रेजों से पुनः नमक समझौता किया। 1887 ई. में इसने सर प्रतापसिंह को महारानी विक्टोरिया के स्वर्ण जुबली (50वर्ष) उत्सव में भाग लेने हेतु लंदन भेजा। 1881ई. में जोधपुर राज्य की पहली जनगणना इसके समय हुई। महाराजा जसवन्तसिंह के समय 1884ई. में जोधपुर में नगरपालिका की स्थापना की गई। 1885ई. में इन्होंने जोधपुर राज्य में बाल विवाह को प्रतिबंधित कर दिया।
1883ई. में जसवन्तसिंह के प्रधानमंत्री सर प्रतापसिंह के निमंत्रण पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जोधपुर आए थे। आर्य समाज की जोधपुर में स्थापना इसी के समय की गई। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने
जसवन्तसिंह को उनकी कामुकता व नन्हीं जान की पालकी अपने कंधे पर उठाए हुए देखकर उन्हें धिक्कारा तथा उनकी तुलना नारकीय पशु से की। इस बात का पता लगने पर नन्ही ने क्रोधित होकर स्वामीजी के दूध में विष मिला दिया। स्वामीजी बाद में अजमेर गए जहाँ 30 अक्टूबर, 1883 ई. को उनकी मृत्यु हो गई।
महाराजा सरदारसिंह (1895-1911ई.)- इनके शासनकाल में जोधपुर पोलो खेल का घर कहलाता था। सरदार सिंह ने पूना में पोलो चैलेंज कप भी जीता था। 1899-1901 ई. में लड़े गए चीन के बॉक्सर युद्ध को दबाने के लिए अंग्रेजों की सहायतार्थ मारवाड़ी सेना भेजी जिसके परिणामस्वरूप मारवाड़ के झण्डे पर चाइना 1900 लिखने का सम्मान मिला। इन्होंने चोरी किए गए माल जाने पर राज्य द्वारा एक चौथाई हिस्सा लेने की प्रथा समाप्त कर दी।
महाराजा सुमेरसिंह (1911-1918ई.)- इन्होंने लन्दन में 1911 ई. में जार्ज पंचम के राज्यारोहण समारोह व 1911ई. के दिल्ली दरबार में भाग लिया। इन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों
की सहायता ही नहीं की बल्कि स्वयं अपने वृद्ध प्रधानमंत्री व जोधपुर लांलर्स के साथ स्थल में गए। इनके समय में सुमेर केमल कोर की स्थापना की गई।
महाराजा उम्मेदसिंह (1918-1947ई.)- उम्मेदसिंह 8 फरवरी, 1921 ई. को दिल्ली में गठित नरेन्द्र मण्डल के सदस्य बने। उम्मेदसिंह के समय 18 नवम्बर, 1929 ई. को छीतर पहाड़ी पर छीतर पैलेस (उम्मेद भवन पैलेस) की नींव रखी। जयनारायण को इन्होंने मारवाड़ की ओर से संविधान सभा का प्रतिनिधि नियुक्त किया। माउण्ट आबू में 9 जून, 1947 ई. में इनका निधन हो गया।
महाराजा हनुवंतसिंह(1947-1948ई.)- ये जोधपुर के राठौड़ वंश के अंतिम शासक थे। इन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना के साथ मिलकर जोधपुर को पाकिस्तान में मिलने का प्रयास किया, परन्तु सरदार पटेल व माउण्ट बेटन के प्रयासों से 1949ई. में जोधपुर का वृहत राजस्थान में विलय कर दिया गया।

बीकानेर का राठौड़ वंश

बीकानेर राजस्थान के उत्‍तरी भाग का एक बहुत बड़ा अंग है, जिसे राव बीका के नाम से ‘बीकानेर’ कहते है। बीकानेर प्राचीन राजस्थान जाँगल प्रदेश का भाग था, जो राठौड़ो की सŸा का दूसरा प्रमुख केंद्र था। बीकानेर में राठौड़ राजवंश की कुल देवी नागणेची माता व ईष्ट देवी करणी माता है। बीकानेर के राठौड़ो का वर्णन दयालदास की ख्यात में मिलता है।
राव बीका (1465-1504ई.)- राव बीका राव जोधा का पाँचवा पुत्र था। बीका की माता का नाम साँखला रानी नौरंगदे था। बीका ने अपने पिता से अनुमति लेकर करणी माता के आर्शीवाद से जोधपुर से रवाना होकर जाँगल प्रदेश पर अधिकार कर लिया। राव बीका ने सर्वप्रथम कोड़मदेसर को अपनी राजधानी बनाई। बीका ने कोड़मदेसर में मंडौर से अपने साथ लाई गई भैरवजी की मुर्ति को स्थापित करके कोड़मदेसर में भैरव मंदिर बनवाया। विक्रम संवत् 1442 में बीका ने राती-घाटी (नागौर, अजमेर तथा मुल्तान के मार्ग जहाँ मिलते थे उस स्थान को पहले राती-घाटी नाम से जाना जाता था) के उस टीले पर एक छोटा-सा किला बनवाकर,
वहीं पर अपने नाम से उसने 1488ई. में बीकानेर नगर की स्थापना की। राव बीका को ही ‘बीकनेर के राठौड़ वंश का संस्थापक’ कहा जाता है।
राव लूणकरण (1505-1526ई.)- राव बीका के छोटे पुत्र लूणकरण को बीकानेर का राजा बनाया गया। लूणकरण अपनी दानशीलता के बहुत प्रसिद्ध हुआ, इसलिए ‘कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकम् काव्यम्’ में उनकी ‘दानशीलता की तुलना कर्ण से की’ और बीठू सूजा ने अपने ‘जैतसी रो छंद’ ग्रंथ में उसे ‘कलयूग का कर्ण’ कहा है। राव लूणकरण की शादी मेवाड़ के रायमल की पुत्री के साथ हुई। लूणकरण ने अपने नाम से लूणकरणसर कस्बे की स्थापना कर लूणकरणसर झील का निर्माण करवाया। आमेर के शासक पृथ्वीराज की पत्नी बालाबाई लूणकरण की पुत्री थी।
राव जैतसी (1526-1542ई.)- राव लूणकरण की मृत्यु के बाद अप्रैल, 1526 ई. में राव जैतसी बीकानेर का शासक बना। राव जैतसी के समय जोधपुर के शासक मालदेव ने 1541ई. में बीकानेर पर आक्रमण किया। राव जैतसी ने अपने परिवार को ‘सिरसा’ नामक स्थान पर सुरक्षित भेजकर स्वयं पाहेबा/साहेबा नामक स्थान पर पहुँचा। जहाँ मालदेव के योग्य सेनापति जैता व कूंपा के नेतृत्व में बीकानेर के राव जैतसी की बुरी तरह पराजय हुई और राव जैतसी की 1541 में मृत्यु हो गई। राणा साँगा व बाबर के मध्य 1527 ई. को ‘खानवा का युद्ध’ हुआ तो राव जैतसी ने साँगा की तरफ से लड़ने अपने पुत्र कुँवर कल्याणमल को ससैन्य सहायता देकर युद्ध में भेजा।
राव कल्याणमल(1544-1574ई.)- राव जैतसी की मृत्यु के बाद उनका पुत्र राव कल्याणमल बीकानेर का शासक बना। उस समय बीकानेर पर मालदेव राठौड़ का शासन था। कल्याणमल सिरसा में रहते हुए बीकानेर प्राप्त करने का प्रयास करने लगा। उसे जल्दी ही मौका मिला, जब शेरशाह सूरी और मालदेव के मध्य 5 जनवरी, 1544 ई. को ‘गिरी-सुमेल का युद्ध’ हुआ। कल्याणमल ने सूरी की सहायता की अतः इस युद्ध में सूरी के जीतने के बाद कल्याणमल को बीकानेर राज्य वापस दे दिया गया। राजपूताने का पहला शासक जीसने दिल्ली सल्तनत(शेरशाह सूरी) से पहले सम्बन्ध बनाए। बीकानेर राज्य तथा मुगलों के बीच प्रथम संधि पर हस्ताक्षर करने वाला शासक कल्याणमल ही था। इसके बाद मुगल बादशाह अकबर की नजर बीकानेर पर पड़ी। कल्याणमल अच्छी तरह से जानता था कि वह अकबर की शक्ति का मुकाबला करने में सक्षम नहीं हैं। इसी कारण जब 1570 ई. में अकबर ने नागौर दरबार लगाया तो कल्याणमल ने अपने पुत्र रायसिंह के साथ उसके दरबार में पहुँचकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। कल्याणमल की 25 सितंबर, 1574 ई. में मृत्यु हो गई। राव कल्याणमल के दो पुत्र रायसिंह व पृथ्वीराज राठौड़ थे।
पृथ्वीराज राठौड़ – पृथ्वीराज राठौड़ जो कि कल्याणमल राठौड़ का छोटा पु़त्र व रायसिंह राठौड़ का छोटा भाई था। 1570 ई. में लगे नागौर दरबार के पश्चात् कल्याणमल ने अपने छोटे पुत्र को अकबर के दरबार में भेज दिया, जहाँ पृथ्वीराज राठौड़ अकबर का दरबारी कवि बन गया। नैणसी री ख्यात के अनुसार अकबर ने पृथ्वीराज राठौड़ से प्रसन्न होकर उसे गागरोन का किला जागीर के रुप में दिया। गागरोन दुर्ग में रहते हुए इसने ‘बेलि क्रिसन रूकमणी री’ नामक पुस्तक लिखी। इस ग्रंथ में हमें श्री कृष्ण और माता रूकमणी के विवाह की कथा का वर्णन मिलता है। दुरसा आढ़ा ने ‘बेलि क्रिसन रूकमणी री’ को ‘पंचम वेद व उन्नीसवें पुराण’ की संज्ञा दी है। पृथ्वीराज राठौड़ ‘पीतल’ नाम से साहित्य की रचना करते थे। डॉ एल.पी.टैस्सीटोरी ने राठौड़ को ‘डिंगल का हैरोस’ कहा है। महाराणा प्रताप व पृथ्वीराज राठौड़ के संबंधों के आधार पर ही कन्हैया लाल सेठिया ने ‘पाथल और पीथल’ नामक पुस्तक की रचना की। जिसमें पीथल शब्द पृथ्वीराज राठौड़ के लिए तथा पाथल शब्द महाराणा प्रताप के लिए प्रयुक्त हुआ।
रायसिंह(1574-1612ई.)- रायसिंह कल्याणमल राठौड़ (बीकानेर) का बड़ा पुत्र था, जिनका जन्म 20 जुलाई, 1541 ई. को हुआ। 1570 ई. में लगे नागौर दरबार में यह अकबर की शाही सेना में शामिल हो गया और शीघ्र ही अकबर का विश्वास पात्र बन गया। आमेर के मानसिंह प्रथम के बाद सम्मान की दृष्टि से मुगल दरबार में रायसिंह ही आता था। रायसिंह की पुत्री का विवाह शहजादे सलीम के साथ हुआ। रायसिंह अकबर और जहाँगीर दोनों की सेवा में रहा। अकबर ने रायसिंह को सर्वप्रथम 1572 ई. में जोधपुर का अधिकारी बनाया और रायसिंह ने मुगल बादशाह के कहने पर माँ भद्रकाली मंदिर की स्थापना की थी। रायसिंह के पिता कल्याणमल की 25 सिंतम्बर, 1574 को मृत्यु होने के बाद रायसिंह बीकानेर का राजा बना। अकबर ने रायसिंह से प्रसन्न होकर 1593 ई. में उसे जूनागढ़ प्रदेश व 1604 ई. में शमशाबाद तथा नूरपुर की जागीर व ‘राय’ की उपाधि दी। बीकानेर के राजा रायसिंह को 1593 ई. में अकबर ने थट्टा अभियान पर भेजा था। रायसिंह ने 1589-1594 ई. के मध्य अपने प्रधानमंत्री कर्मचन्द्र की देखरेख में जूनागढ़ (बीकानेर) का निर्माण करवाया तथा वहाँ एक प्रशस्ति लगवाई जिसे ‘रायसिंह प्रशस्ति’ के नाम से जाना जाता है, जिसका संबंध बीकानेर के शासकों से है। रायसिंह स्वयं एक अच्छा साहित्यकार था, उसने स्वयं रायसिंह महोत्सव, वैद्यक वंशावली, ज्योतिष रत्नमाला, ज्योतिष ग्रंथों की भाषा पर बाल बोधिनी नामक टीका लिखी। ‘कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकं काव्यं’ ग्रंथ में रायसिंह को राजेन्द्र कहकर पुकारा गया है। बीकानेरी चित्रकला की शुरुआत रायसिंह के शासन में मानी जाती है, क्योंकि इस शैली का प्राचीनतम ग्रंथ ‘भगवत पुराण’ है, जो रायसिंह के काल का है। रायसिंह के काल में बीकानेर में घोर त्रिकाल पड़ा। रायसिंह ने लोगों के लिए जगह जगह ‘सदाव्रत’ खोले तथा पशुओं के लिए चारे पानी की व्यवस्था की इसलिए मुंशी देवी प्रसाद ने रायसिंह को ‘राजपूताने का कर्ण’ कहा है। रायसिंह की मृत्यु दक्षिण भारत में बुरहानपुर में 21 जनवरी, 1612 में हुई। बीकानेर के महाराजा रायसिंह ने मुगलों की जीवनपर्यन्त सेवा की, इसलिए रायसिंह को ‘मुगल साम्राज्य का स्तम्भ’ कहा जाता है।
महाराजा कर्णसिंह (1631-1669ई.)- अपने पिता सूरसिंह की मृत्यु के बाद सन् 1631 में सूरसिंह का पुत्र कर्णसिंह बीकानेर का राजा बना। वह एक दूरदर्शी शासक था। महाराजा कर्णसिंह मुगल बादशाह शाहजहाँ व औरंगजेब के समकालीन थे। जब शाहजहाँ बीमार पड़ा और मुगल साम्राज्य में उŸाराधिकारी युद्ध शुरु हुआ। कर्णसिंह मुगल दरबार से बीकानेर लौट आए। कर्णसिंह को पहले से अनुमान था कि औरंगजेब इस युद्ध में जीतेगा अतः कर्णसिंह ने अपने दो पुत्रों पद्मसिंह व केसरीसिंह को उसकी मदद के लिए उसके पास भेज दिया। औैरंगजेब के अटक अभियान के तहत कर्णसिंह ने राजपूताने के शासकों को वहाँ उज्जबेगों द्वारा आई विपदा से बचाया था इसलिए राजपूत शासकों ने कर्णसिंह को ‘जांगलधर बादशाह’ व औरंगजेब को आलमगिर की उपाधि प्रदान की । अनूपसिंह के समय में अनुदित शुक सप्तति में कर्णसिंह को ‘जांगल का पातशाह’ कहा है। कर्णसिंह ने कई विद्वानों की सहायता से ‘साहित्य कल्पद्रुम’ की रचना की। 1644 ई. में कर्णसिंह व जसवन्त सिंह राठौड़ के बडे़ भाई अमरसिंह राठौड़ के मध्य ‘मतीरे री राड़’ नामक युद्ध हुआ। कर्णसिंह ने देशनोक (बीकानेर) में करणी माता का मंदिर बनवाया। कर्णसिंह के शासनकाल में गंगाधर मेथिल ने ‘कर्णभूषण, काव्य डाकीनी तथा भट्ट होंसिक’ ने ‘कर्णवतस’ कवि मुद्गल या कर्ण संतोष की रचना की जो वर्तमान में भी संस्कृत पुस्तकालय बीकानेर में सुरक्षित है। औरंगाबाद के पास अपने बसाए हुए करणपुरा नामक गाँव में 22 जून,1699 ई. को कर्णसिंह की मृत्यु हो गई।
महाराजा अनूपसिंह (1669-1698ई.)- कर्णसिंह की मृत्यु के बाद 1669ई. में अनूपसिंह बीकानेर का शासक बना। सर्वप्रथम वह दक्षिण भारत में शिवाजी के बढ़ रहे प्रभाव को दबाने गया, जिसमें इन्हें काफी हद तक सफलता मिली। औंरगजेब ने प्रसन्न होकर अनूपसिंह को ‘महाराजा व माही भारतिव’ की उपाधि दी। अनूपसिंह का शासनकाल ‘बीकानेर चित्रकला का स्वर्णकाल व प्राचीज भारतीय ग्रंथों के राजस्थानी व मारवाड़ी में अनुवाद के लिए’ जाना जाता है। अनूपसिंह के समय ही आनंद राम ने पहली बार गीता का राजस्थानी में अनुवाद किया। अनूपसिंह के शासनकाल में ही ‘बेताल पच्चीसी’ की कथाओं का कविता मिश्रित मारवाड़ी गद्य में अनुवाद किया गया। अनूपसिंह ने स्वयं अनूपविवेक, काम प्रबोध, श्राद्ध प्रयोग, चिंतामणि व गीत गोविंद की अनूपोदय टीका आदि प्रसिद्ध ग्रंथ लिखे। अनूपसिंह के दरबार में संगीताचार्य जनार्दन भट्ट का पुत्र भावभट्ट इनका दरबारी साहित्यकार व संगीतकार था, जिसने ‘संगीत रत्नाकर’ की रचना की। अनूपसिंह के दरबारी मणिराम ने ‘अनूप व्यवहार सागर, अनूप विलास’ अनंग भट्ट ने ‘तीर्थ रत्नाकर’ तथा वैद्यनाथ ने ‘ज्योत्पति सार’ नामक ग्रंथों की रचना की।
महाराजा सूरतसिंह (1787-1828ई.)- सूरतसिंह ने सन् 1805 ई. में भटनेर के भाटियों को मंगलवार के दिन पराजित कर वहाँ अपना अधिकार करके भटनेर दुर्ग का नाम बदलकर ‘हनुमानगढ़’ कर दिया। सूरतसिंह ने मार्च 1818 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी से सुरक्षा संधि या आश्रित पार्थक्य संधि कर अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली। इन्हीं के शासनकाल में दयालदास ने ‘बीकानेर रे राठौड़ा री ख्यात’ में जोधपुर व बीकानेर के राठौड़ वंश का वर्णन किया।
सरदार सिंह (1851-1872ई.)- सरदार सिंह राजस्थान के एकमात्र ऐसे शासक थे, जो 1857 की क्रांति के समय अंग्रेजों की सेना को सहायता देने के लिए राजस्थान से बाहर स्वयं अपनी फौज लेकर हांसी, सिरसा और हिसार गया था। (बाड़लू नामक स्थान पर सरदार सिंह को क्रांतिकारियों के हाथों मात खानी पड़ी।) सरदार सिंह से अंग्रेजों ने प्रसन्न होकर उसे टिब्बी परगने के 41 गाँव उपहार में दिए। सरदार सिंह ने ही बीकानेर में सर्वप्रथम सती प्रथा तथा जीवित समाधि पर रोक लगाई।
डूँगर सिंह (1872-1887 ई.)- डूँगरसिंह के शासनकाल में बीकानेर में बीकानेरी भुजिया बनाने की शुरुआत हुई। डूँगरसिंह ने ही 1878ई. में अंग्रेजों की सहायता करने के लिए 800 ऊँटों का काफिला काबुल भेजा था। डूँगरसिंह की 19 अगस्त, 1889 ई. को मृत्यु हो गई। डूँगरसिंह ने पहली बार बीकानेर में हिमालय की नदियों का पानी लाने का सपना देखा था, तो महारानी विक्टोरिया के स्वर्ण जुबली उत्सव में भाग लेने के लिए 1887ई. में मारावाड़ के प्रतिनिधि के रूप में प्रतापसिंह (सर प्रताप) को इंग्लैण्ड भेजा।
गंगासिंह (1887-1943ई.)- गंगासिंह राजस्थाने में सर्वप्रथम गंगनहर के द्वारा 1927 ई. में राज्य के बाहर का जल राज्य में लेकर आए अतः इन्हें ‘राजस्थान का भागीरथ(आधुनिक भारत का भागीरथ) कहते है। गंगासिंह ने राजस्थान में सर्वप्रथम 1910 ई. में पहली बार बीकानेर में ‘आधुनिक प्रणाली पर आधारित न्याय व्यवस्था’ की स्थापना की। इन्हीं के शासनकाल में 1899 ई. से 1900 ई. ते भयंकर अकाल पड़ा, जिसे ‘छप्पनियां अकाल’ भी कहते है। सन् 1900 ई. में चीन में हुए विद्रोह को दबाने के लिए चीन मे गंगासिंहजी अपनी ‘गंगा रिसाला’ (ऊँटों की सैनिक टुकड़ी) के साथ गए। अंग्रेजों ने प्रसन्न होकर उन्हें ‘चीन युद्ध पदक’ दिया। राजस्थान के बीकानेर राज्य के महाराजा गंगासिंहजी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 10 लाख रुपए दिए तो महाराज गंगासिंहजी ही एकमात्र राजस्थानी थे जिन्होंने ‘तीनों गोलमेज सम्मेलनों’ में भाग लिया था। 20वीं सदी के दूसरे दशक में भारत की राजनीतिक स्थिति तथा उसके सम्भावित हल विषय वस्तु पर बीकानेर महाराजा ने प्रसिद्ध ‘राम नोट’ तैयार किया। गंगासिंहजी द्वितीय विश्वयुद्ध में भी अंग्रेजों को सहायता देने के लिए यूरोप गए थे। युद्ध की समाप्ति के हुई ‘वर्साय की संधि’ (पेरिस समझौते) में गंगा सिंह ने भाग लिया। महाराजा गंगासिंह 1921ई. से 1925 ई. तक नरेन्द्र मंडल (चेम्बर ऑफ प्रिंसेज) के प्र्रथम चाँसलर रहे। 1931 ई. में बीकानेर में ‘प्रजा प्रतिनिधि सभा’ की स्थापना की। गंगासिंह ने अपने पिता लालसिंह की स्मृति में बीकानेर में ‘लालगढ़ पैलेस’ बनवाया। बीकानेर के गंगासिंह ने माणिक्यलाल वर्मा क्रांतिकारी के बीकानेर आगमन पर रोक लगाई थी।
सार्दुलसिंह (1943-1950ई.)- भारत की स्वतंत्रता के समय एवं राजस्थान के एकीकरण के समय बीकानेर के शासक सार्दुलसिंह थे, जिन्होंने राजस्थान नहर बनवाने के लिए पंजाब के इंजीनियर कँवरसेन को बीकानेर में बुलाया।

किशनगढ़ का राठौड़ वंश

किशन सिंह (1609-1616ई.) –
जोधपुर के मोटा राजा उदयसिंह के पुत्र किशन सिंह ने 1609 ई. में किशनगढ़ राज्य की स्थापना की। मुगल शासक जहांगीर ने इन्हें महाराजा की उपाधि प्रदान की। किशन सिंह की छतरी अजमेर में घूघरा घाटी में स्थित है।
सांवतसिंह (1706-1748ई.) –
राजसिंह के पुत्र सावंतसिंह ने इश्कचमन, मनोरथ, मंजरी, नागरसमुच्चय, रसिक रत्नावली, विहार चंद्रिका सहित 70 ग्रंथों की रचना की थी। सावंत सिंह का समय किशनगढ़ चित्रकला का चरमोत्कर्ष माना जाता है। इस शैली का प्रसिद्ध चित्रकार निहालचंद था जिसने बणी-ठणी चित्र बनाया। जर्मन विद्वान एरिक डिक्सन ने बणी-ठणी को भारत की मोनालिसा कहा है। भक्त नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध सावंत सिंह कृष्ण भक्ति में राजपाट अपने पुत्र सरदार सिंह को सौंप कर वृंदावन चले गए थे। इनके काल को किशनगढ़ चित्रशैली के विकास का स्वर्णकाल कहा जाता है।

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