मेवाड़ : गुहिल- सिसोदिया वंश

मेवाड़ रियासत राजस्थान की सबसे प्राचीन रियासत है। इसे मेदपाट, प्राग्वाट, शिवि जनपद आदि नामों से जाना जाता है। उस समय मेवाड़ की राजधानी माध्यमिका(वर्तमान नगरी चित्तौड़गढ़ ) थी। मेवाड़ पर शुरू में मौर्यों ने शासन किया था, इन्हीं मौर्यों में से एक चित्रांगद मौर्य ने 8वीं शताब्दी में चित्रकूट पहाड़ी व मेसा के पठार पर एक दुर्ग बनाया, जो चित्तौड़गढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 734 ई. में इस दुर्ग पर मौर्य शासक मानमोरी का राज्य था, जिसे गुहिलों ने हराकर चित्तौड़ पर गुहिल वंश का शासन स्थापित किया इसी कारण इन्हें गहलोत वंश या सिसोदिया वंश भी कहा जाता है। 7वीं – 16वीं शताब्दी तक चित्तौड़गढ़ किले पर गहलोत/सिसोदिया वंश ने शासन किया।
डॉ. डी. आर. भण्डारकर एवं डॉ. गोपीनाथ शर्मा मेवाड़ के गुहिलों की उत्पत्ति ब्राह्ममण वंश से मानते हैं, तो डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा गुहिलोतों की ब्राह्मण उत्पत्ति के सिद्धान्त के विरूद्ध हैं और वे उनको सूर्यवेशी मानते हैं। मुहणोत नैणसी ने अपनी ख्यात नैणसी री ख्यात में गुहिलों की 24 शाखाओं का उल्लेख किया है।
मेवाड़ का गुहिल वंशी राजघराना शिवजी (एकलिंग जी) का उपासक था, इसी कारण मेवाड़ के शासक एकलिंग नाथ जी को स्वयं के राजा (कुल देवता/ ईष्ट देवता) तथा स्वयं को एकलिंग नाथ जी का दीवान मानते हैं। मेवाड़ के महाराणा राजधानी छोड़ने से पहले एकलिंगजी से स्वीकृति लेते थे, उसे ‘आसँका’ कहते थे।
गुहिल वंश की कुल देवी ‘बाण माता’ हैं। यहाँ के महाराणा ‘हिन्दूजा सूरज’ कहलाते हैं क्योंकि वह स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं। गुहिल वंश के राजध्वज पर ‘उगता सूरज एवं धनूष बाण’ अंकित है, राजवाक्य ’जो दृढ़ राखै धर्म को, तिहीं राखै करतार’ है, तो मेवाड़ के राजचिह्न में राजपूत-भील अंकित है।
ध्यातव्य रहे- मेवाड़ में 1877 में महाराणा के कार्ट का नाम बदलकर ‘इजलास खास’ कर दिया गया था, तो मेवाड़ रियासत के सामंत ‘उमराव’ कहलाते थे। सोलह, बत्तीस और गोल का संबंध मेवाड़ राज्य में सामन्तों की श्रेणियों से हैै।

गुहिलादित्य– गुहिलादित्य गुहिल वंश के संस्थापक (566ई.) था, जिसने नागदा को अपनी राजधानी बनाई।

बप्पा रावल( 734 – 53 ई.)- इसका मूल नाम मालभोज/कालभोज था। यह हारित ऋषि का शिष्य था और उनकी गाय चराता था। हारित ऋषि ने उन्हें ‘बप्पा रावल’ की उपाधि दी व उन्हीं के आर्शीवाद से 734 ई./8वीं शताब्दी में बप्पा रावल ने चिŸाड़गढ़ के राजा मानमोरी को हराकर मेंवाड़ में गुहिल राज्य की नींव रखी अतः इसे ‘गुहिल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक’ कहा जाता है। बप्पा ने मेवाड़ में सर्वप्रथम सोने के सिक्के चलाये व अपने इष्ट देव/कुल देवता एकलिंग जी (लकुलीश सम्प्रदाय से संबंधित) का मन्दिर कैलाशपुरी गाँव में बनवाया। बप्पा रावल की समाधि नागदा में है।

अल्लट/आलूराव– इसने हूण राजकुमारी हरिया देवी से शादी की और सर्वप्रथम नौकरशाही (जिस दिन से नौकरशाही अंदाज में जीने लगे) को लागू किया, जो वर्तमान में भी चल रही है। इतिहासकार ओझा के अनुसार मेवाड़ के शासक अल्लट ने प्रतिहार वंश के देवपाल को मारा था।
रणसिंह(1158 ई.)– इसके शासन काल में गुहिल वंश दो भागों में बँट गया। प्रथम रावल शाखा – रणसिंह के पुत्र क्षेमसिंह ने रावल शाखा का निर्माण कर चित्तौड़ पर शासन किया। द्वितिय राणा शाखा- रणसिंह के पुत्र राहप ने सिसोदा ग्राम बसाकर राणा शाखा (सिसोदिया) की शुरूआत की।
ध्यातव्य रहे- राजस्थान के सिसोदिया राजपूत मूल रूप से गुजरात राज्य के प्रवासी थे।
जैत्रसिंह(1213-1252/1253 ई.)– इन्होंने इल्तुतमिश के आक्रमण से परेशान होकर अपनी राजधानी नागदा से चित्तौड़गढ़ से नागदा को बनाया। जैत्रसिंह ने ‘भूताला के युद्ध’ (राजसंमद) में 1227ई. में (डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने यह युद्ध 1221-1229 ई. के मध्य हुआ बताया है) इल्तुतमिश को पराजित किया। इसकी जानकारी जयसिंह सूरि कृत ‘हमीर मदमर्दन’ से मिलती है। ध्यातव्य रहे- जैत्रसिंह मेवाड़ का एकमात्र ऐसा शासक था जिसने दिल्ली के छः सुल्तानों का शासन देखा। तेजसिंह (1252/1253-1273 ई.) तक शाशक रहें।
समरसिंह(1273-1303 ई.)– इसके शासनकाल में उसके पुत्र कुम्भकरण ने नेपाल में गुहिल वंश की स्थापना की तथा दूसरे पुत्र रतनसिंह ने चित्तौड़ पर शासन किया।
रतनसिंह(1302-1303 ई.)– यह रावल शाखा का अन्तिम शासक था। इसके समकालीन दिल्ली सुल्तान अल्लाउद्दिन खिलजी ने साम्राज्यवादी नीति के तहत् चिŸाड़ पर 28 जनवरी, 1303 ई. में आक्रमण किया। इस युद्ध में 26 अगस्त, 1303 ई. को रतनसिंह, गोरा (पद्मिनी का चाचा), बादल(पद्मिनी का भाई) लड़ते हुए मारे गए(केसरिया) तथा महारानी पद्मिनी व नागमती (रतनसिंह की पत्नियाँ) ने 1600 महिलाऔं के साथ जौहर किया। यह चित्तौड़ के प्रथम व राजस्थान का सबसे बड़ा साका है तथा क्रमशः राजस्थान का दूसरा साका था। इस युद्ध का सजीव चित्रण अमीर खुसरो ने अपने ग्रंथ ख़जाइन-उल-फुतूह में किया क्योंकि यह कवि खिलजी के साथ था। अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम अपने पुत्र खिज्रखाँ के नाम पर ‘खिज्राबाद’ करके वहाँ का शासक अपने पुत्र खिज्रखाँ को बनाया। ध्यान रहे – 1540 ई. में शेरशाह सूरि के काल में मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ नामक ग्रंथ लिखा, जो एक काल्पनिक गं्रथ था, उसके अनुसार यह आक्रमण अल्लाद्दीन खिलजी ने राघव चेतन के कहने पर रतनसिंह की रूपवती पत्नी पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए किया था। रानी पद्मिनी के तोते का नाम हीरामन था।
राणा हम्मीर देव (1326-1364 ई. )– इन्होंने मालदेव के पुत्र जैसा/जयसिंह (ओझा के अनुसार), मालदेव के पुत्र बनवीर (रणकपुर, पाली शिलालेख के अनुसार) हराकर मेवाड़ में सिसोदिया वंश के साम्राज्य की स्थापना की, इसी कारण इसे ‘मेवाड़ कर उद्धारक, सिसोदिया साम्राज्य का संस्थापक’ भी कहते हैं। इन्हें कीर्तिस्तम्भ में ‘विषम घाटी पंचानन’ तथा गीत गोविंद पुस्तक की टीका ‘रसिक प्रिया’ में ‘वीर राजा’ की उपाधि दी गई हैं। इसके समय से चित्तौड़ के राजाओं के आगे राणा लगाना शुरू हुआ। ध्यान रहे- हम्मीर सिसोदिया ने ‘सिंगोली के युद्ध’(चित्तौड़गढ़) में दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक को परास्त किया।
राणा लाखा/लक्षसिंह(1382-1421 ई.)- इनकी शादी वृद्धावस्था में मारवाड़ के रावचूड़ा की पुत्री व रणमल राठौड़ की बहिन हंसाबाई से सशर्त (हंसाबाई से उत्पन्न पुत्र मेवाड़ का उत्‍तराधिकारी बनेगा) हुई। उनके मोकल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। राणा लाखा के शासनकाल में उदयपुर के जावर नामक स्थान पर चाँदी की खान निकली, जो एशिया की सबसे बड़ी चाँदी की कहा जाता है।
राणा चूंडा- यह लाखा के बड़े पुत्र व हंसाबाई के सौतेले पुत्र थे। चूंडा ने मेवाड़ का राज्य हंसा बाई के होने वाले पुत्र को देने व जीवन भर कुँवारा रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की अतः इन्हें ‘मेवाड़ का भीष्म पितामह/राजस्थान का भीष्म’ भी कहा जाता है।
राणा मोकल(1421-1433 ई.)– 1433 ई. में अहमद खाँ के साथ हो रहे जीलवाड़ा युद्ध (चारभुजा,राजसंमद) के मैदान में महपा पंवार के कहने पर ‘चाचा व मेरा’ (दोनों क्षैत्रसिंह की खतिन प्रेमिका कर्मा के अवैध /अनऔरस संताने थी) नामक दो व्यक्तियों ने इनकी हत्या कर दी।
महाराणा कुम्भा (1433- 1468 ई.)– महाराणा कुम्भा राणा मोकल व परमार रानी सौभाग्य देवी का पुत्र था, जिनका जन्म 1403 ई. में हुआ।इनका राज्यभिषेक 1433 ई. में किया गया। इन्हें हिन्दू सुरताण (मुस्लिम शासकों को पराजित करने के कारण), अभिनव भरताचार्य (संगीत ज्ञान के लिए), राणा रासो (विद्वानों का आश्रयदाता), हालगुरू(गिरी दुर्गों का निर्माता), राजगुरू(विद्वान), राणेराय, दानगुरू आदि नामों से भी जाना जाता है।
कुम्भा ने अपने पिता की हत्या का बदला चाचा व मेरा को मारकर लिया। इन्होंने 1437 ई. में ‘सारंगपुर के युद्ध’ (मध्य प्रदेश) में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को पराजित कर मालवा विजय के उपलक्ष में कीर्ति स्तम्भ/विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया। नौं मंजिला के विशाल कीर्ति स्तम्भ को राणा कुम्भा ने भगवान विष्णुजी को समर्पित किया।
महाराणा कूम्भा व राव जोधा के मध्य कुम्भा की दादी व राव जोधा की बुआ हंसाबाई ने 1453 ई. में पाली में ‘आँवल-बाँवल’ की संधि करवाई जिसके तहत् मेवाड़- मारवाड़ की सीमा का निर्धारण हुआ तथा राव जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल के साथ किया।
चम्पानेर/चम्पारण की संधि (1456 ई.) राणा कुम्भा के विरूद्ध मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी और गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन के मध्य हुई थी। ध्यान रहे – कुम्भा का गुजरात के साथ संघर्ष का प्रारम्भिक कारण नागौर विवाद(1456 ई. ) था।
1457 ई. में इन्होंने पुनः ‘बदनौर/बैराठगढ़ के युद्ध’ (भीलवाड़ा) में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को पराजित किया और इस विजय के उपलक्ष में कुशाल माता के मंदिर (बदनौर) का निर्माण करवाया।
सबसे अधिक मेवाड़ की बौद्धिक व कलात्मक उन्नति का श्रेय महाराणा कुम्भा को जाता है। महाराणा कुम्भा के काल में राजस्थान में चित्रकला की शुरूआत हुई। वीर विनोद पुस्तक (इस ग्रंथ की रचना मेवाड़ के सज्जन सिंह के शासनकाल में की गई) के लेखक श्यामलदास (भीलवाड़ा निवासी) के अनुसार मेवाड़ के 84 दुर्गों में से 32 दुर्ग महाराणा कुम्भा ने बनवाए, अतः इसे ‘स्थापत्य कला का जनक’ कहते है। महाराणा कुम्भा ने कुम्भलगढ़ (राजसमन्द), अचलगढ़(सिरोही), बसंतगढ़(माउण्ट आबू,सिरोही), भोमट दुर्ग (बाड़मेर),मचान दुर्ग आदि का निर्माण करवाया।
कुम्भा के प्रमुख शिल्पी मण्डन द्वारा रूप मण्डन, देवमूर्ति प्रकरण/रूपावतार, वास्तुमण्डन, वास्तुसार,कोदण्ड मण्डन, शाकुन मण्डन, राजवल्लभ मण्डन आदि ग्रंथों की रचना की गई।
ध्यातव्य रहे- प्रसिद्ध संगीतज्ञा रमाबाई कुम्भा की पुत्री थी, जिसे ‘वागीश्वरी’ के नाम से जानते हैं।
महाराणा कुम्भा के दरबार में टिल्ला भट्ट, नाथा, मुनि सुन्दर सूरी आदि विद्वान थे। मेवाड़ के राणा कुम्भा ने अनेक ग्रंथ लिखे जैसे- रसिक प्रिया, संगीराज(5 भागों में विभक्त), चण्डीशतक की टीका, संगीत रत्नाकार का टीका, नृत्य रत्नकोष। कुम्भा ने एकलिंग महात्म्य पुस्तक के प्रथम भाग ‘राजवर्णन’ की रचना की तथा इस पुस्तक का अंत कुम्भा के वैतनिक कवि कान्ह व्यास ने किया।
र्कीति स्तम्भ प्रशस्ति 1460 ई. के अभिलेख में महाराणा कुम्भा के लेखन पर प्रकाश डाला है। प्रशस्तिकार ‘महेश भट्ट’ ने प्रशस्ति में कुम्भा द्वारा विरचित ग्रंथों का उल्लेख किया गया है। इस लेखानुसार कुम्भा द्वारा रचित 4 नाटकों में मेवाड़ी भाषा का प्रयोग किया गया था। र्कीतिस्तम्भ प्रशस्ति के अनुसार कुम्भा को वीणा बजाने में दक्षता हासिल थी।
1468 ई. में कुम्भलगढ़ के अन्दर कटारगढ़ दुर्ग के कुम्भश्याम मन्दिर में कुम्भा के पुत्र ऊदा ने कुम्भा की हत्या का दी अतः ‘मेवाड़ का पितृहन्ता-ऊदा’ कहलाता है।
मेवाड़ के सरदारों ने पितृहन्ता ऊदा को हटाकर रायमल(1473- 1509 ई.) को मेवाड़ का शासक बनाया, तो दाड़िमपुर विजय का संबंध रायमल से है। रायमल के पुत्र पृथ्वीराज सिसोदिया को उड़ना राजकुमार के नाम से जाना जाता है।
महाराणा साँगा(1509-1528 ई.)– महाराणा साँगा के पिता रायमल व माता श्रृंगार देवी थी। साँगा 1509 ई. में मेवाड़ का शासक बना, जो ‘हिन्दूपत व सैनिकों का भग्नावशेष’ नामों से भी जाना जाता है।
राणा साँगा ने 1517 में खातोली (बूँदी) {खातोली के युद्ध में सांगा ने इब्राहिम लोदी के पुत्र को बंदी बना लिया था, तो साँगा स्वयं इस युद्ध में लंगड़ा हो गया था} व 1518 में बाड़ी (धौलपुर) के युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त किया तथा 1519 में गागरोन के युद्ध (झालावाड़) में मालवा के महमूद खिलजी द्वितिय को पराजित किया। 16 फरवरी, 1527 ई. में हुए बयाना के युद्ध में साँगा के सैनिकों ने बाबर के सैनिकों (दुर्ग रक्षक बाबर का बहनोई मेहंदी ख्वाजा) को हराकर बयाना दुर्ग पर अधिकार कर लिया।
17 मार्च, 1527 को खानवा के मैदान (रूपवास, भरतपुर) में राणा साँगा एवं बाबर के मध्य खानवा का युद्ध हुआ।
ध्यातव्य रहे- बाबर के समकालीन मेवाड़ व मारवाड़ दो शक्तिशाली हिन्दू राज्य थे।
राणा सांगा ने खानवा के युद्ध से पहले ‘पाती परवन’ की राजपूत परम्परा को पुनर्जीवित करके राजस्थान के प्रत्येक सरदार को अपनी ओर से युद्ध में शामिल होने का निमंत्रण दिया था। साँगा अंतिम हिन्दू राजा थे, जिनके सेनापतित्व में सभी राजपुत जाति विदेशियों/मुगल शासकों को भारत से निकालने के लिए सम्मिलित हुई। इसी कारण खानवा के युद्ध में राणा की में अफगान सुल्तान महमूद लोदी, मेव शासक हसन खाँ मेवाती, मारवड़ के राव गंगा के पुत्र मालदेव, बीकानेर के राव जैतसी का पुत्र कुँवर कल्याणमल, आमेर का राजा पथ्वीराज, ईडर का राजा भारमल, मेड़ता का रायमल राठौड़, रायसीन का सलहदी तंवर(अंतिम समय पर समर्थन वापस), चंदेरी का मेदिनीराय, नागौर का खानजादा, सिरोही का अखैराज, वागड़ (डूँगरपुर) का रावल उदयसिंह, सलूम्बर का रावत बाघसिंह, नरबद हाड़ा वीरसिंह देव, गोकुल दास परमार, झाला अज्जा आदि सम्मिलित थे। ध्यान रहे- रावत जग्गा एवं रावत बाघ सिंह साँगा के सरदार थे।
खानवा युद्ध के दौरान घायल साँगा जब युद्ध के मैदान से बाहर निकलते हैं, तो उनका राजमुकुट झाला अज्जा धारण का मेवाड़ी सेना का नेतृत्व करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। थोड़ी ही देर में महाराणा के न होने की खबर सेना में फेलने से सेना का मनोबल टूट गया और इस युद्ध में बाबर विजयी हुआ।
खानवा के युद्ध में साँगा की पराजय का मुख्य कारण- राजपूत बाबर के युद्ध की नवीन व्यूह रचना ‘तुलुगमा पद्धति’ से अनभिज्ञ थे। बाबर की सेना के पास तोंपे और बंदूके थी, जिससे राजपूत सेना की बड़ी हानि हुई थी। रायसीन के सलहदी तँवर व नागौर के खनजादा युद्ध के अंतिम दौर में साँगा का साथ छोड़कर बाबर के साथ जा मिले थे। खानवा के युद्ध में बाबर ने ‘जिहाद/धर्म युद्ध’ का नारा दिया।
ध्यातव्य रहे- महाराणा साँगा ने इब्राहिम लोदी के भाई महमूद लोदी व हसन खाँ मेवाती दो अफगानों को शरण दी थी।
साँगा को कालपी (मध्यप्रदेश) नामक स्थान पर इनके साथियों ने जहर देकर 30 जनवरी, 1528 ई. को इनकी हत्या कर दी। इनका दाह संस्कार माण्डलगढ़ में किया गया, जहाँ इसकी छतरी बनी हुई है, तो साँगा का स्मारक बसवा (दौसा) में बना हुआ है। मेवाड़ के महाराणा सांगा ने प्रतिज्ञा की थी, कि “जब तक वह अपने शत्रु को पराजित नहीं कर लेगा, तब तक चितौड़ के फाटक में प्रवेश नहीं करेगा“
राणा विक्रमादित्य(1531- 1536 ई.)– इनका राज्याभिषेक कम उम्र में हुआ, अतः राजरार्य का संचालन इनकी माता हाड़ारानी कर्मावती करती थी। इनके शासन काल में 1534 ई. गुजरात के बहादुर शाह ने आक्रमण किया। हाड़ारानी कर्मावती/कर्णवती ने उस समय विक्रमादित्य व उदयसिंह को युद्ध से पहले ननिहाल (बूँदी ) भेज दिया गया व देवलिया (प्रतापगढ़) के रावत बाघसिंह के नेतृत्व में सैनिकों ने युद्ध किया व लड़ते (केसरिया) हुए वीरगति को प्राप्त हुए व हाड़ारानी कर्मावती ने 1200 महिलाओं के साथ जौहर किया। बाद में पृथ्वीराज सिसोदिया की दासी पूतलदे के पुत्र बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या कर दी।
1544 ई. में उदयसिंह मेवाड़ का प्रथम शासक था जिसने अफगान शेरशाह सूरी की अधीनता स्वीकार की एवं चित्तौड़गढ़ की चाबियाँ शेरशाह सूरी के पास भेज दी व 1559 ई. में धूणी नामक स्थान पर उदयपुर नगर बसाया।
इसके शासनकाल में 12 अक्टूबर, 1567 को अकबर ने चित्ताैड़ पर आक्रमण किया। उदयसिंह जयमल व फत्ता को किले का भार सौंपकर गोगुन्दा चला गया। 25 फरवरी, 1568 ई. को जयमल व फत्ता इस युद्ध में मारे गए (केसरिया) व उनकी रानियों ने फूल कँवर (फतेहसिंह की पत्नी) के नेतृत्व में जौहर किया, यह चित्तौड़ का तीसरा व अन्तिम साका था, जीतने के बाद अकबर ने उदयपुर का नाम ‘मुहम्मदाबाद’ करवा दिया तथा ‘इस्लाम की काफिरों पर विजय’ कहते हुए 30,000 व्यक्तियों का कत्लेआम करवाया। इस कलंक को मिटाने के लिए अकबर ने जयमल व फत्ता की गजारूढ़ संगरमर की प्रतिमाएँ आगरा के किले पर लगवाई। उदयसिंह की 28 फरवरी, 1572 में होली के दिन गोगुन्दा में मृत्यु हो गई। यही पर इनकी छतरी बनी हुई है।
ध्यातव्य रहे- अकबर ने उदयसिंह को अपने अधीन करने के लिए दो शिष्टमंडल पहला – राजा भारमल व दूसरा – टोडरमल व भगवंत दास के नेतृत्व में भेजे।
महाराणा प्रताप (1572- 1597 ई.) – मेवाड़ का रक्षक/मेवाड़ केसरी/हल्दीघाटी का शेर/ पाथळ(साहित्यिक नाम) उपनाम से प्रसिद्ध व स्वभूमिध्वंस की नीति का अनुसरण करने वाले महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. में उदयसिंह व जैवन्ता बाई के यहाँ कुम्भलगढ़ दुर्ग (राजस्थान) में हुआ। इनके बचपन का नाम कीका था तथा इनका सर्वाधिक बचपन राजसंमद जिले में गुजरा।
महाराणा उदयसिंह ने अपनी दूसरी पत्नी व प्रिय रानी जैसलमेर के भाटी राजवंश की पुत्री धीरबाई से उत्पन्न पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, जबकि प्रताप सबसे व योग्य पुत्र थे। महाराणा उदयसिंह का देहावसान 28 फरवरी, 1572 को हो गया। उदयसिंह की मृत्यु के बाद जगमाल को राजगद्दी पर बैठा दिया लकिन जालौर के अखयराज व ग्वालियर के रामसिंह ने इसका विरोध किया और गद्दी पर बैठे जगमाल को हटा दिया। इस पर जगमाल अप्रसन्न होकर अकबर के पास पहुँचा, जिसने उसे पहले जहाजपुर और पीछे आँधी की जागीर दे दी।
महाराणा प्रताप का 32 वर्ष की आयु में 28 फरवरी, 1572 को गोगुन्दा में राज्यभिषेक (प्रथम बार) हुआ तथा इनके तलवार कृष्णदास ने बाँधी। इनका राज्यभिषेक समारोह कुम्भलगढ़ दुर्ग (दूसरी बार) में हुआ। सिसोदिया वंश में महाराणा प्रताप को युवराज का खिताब दिया गया और मेवाड़ का 54वाँ शासक नियुक्त किया गया।
1570 में अकबर ने नागौर दरबार लगाया, जिसमें मेवाड़ के अलावा अधिकांश राजपूत शासकांं ने अरबर की अधीनता स्वीकार कर ली तब महाराणा को समझाने कि लिए अकबर ने चार बार क्रमशः जलाल खाँ कोरची (पहली बार), मानसिंह कछवाह, भगवानदास व टोडरमल (अंतिम बार) के नेतृत्व में चार शिष्टमंडल भेजे।
18 जून (राजस्थान बोर्ड की पुस्तकों एवं डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव के अनुसार) 21 जून(हिन्दी साहित्य अकादमी व डॉ. गोपीनाथ शर्मा की पुस्तकों के अनुसार ) 1576 ई. में अकबर की तरफ से मानसिंह तथा महाराणा प्रताप के मध्य हल्दीघाटी का युद्ध हुआ जिसे कर्नल जेम्स टॉड ने ‘राजस्थान / मेवाड़ का थर्मोपाल्ली’ अबुल फजल ने ‘खमनौर का युद्ध’ तथा आँखों देखा हाल लिखते हुए बँदायूनी ने इसे ‘गोगुन्दा का युद्ध’ डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने ‘अनिर्णायक युद्ध’ कहा। इसमें प्रताप की पराजय हुई, परन्तु वह बन्दी नहीं बनाए गए।
हल्दीघाटी युद्ध के प्रमुख हाथी, जिन्होंने युद्ध में वीरता दिखायी थे- रामप्रसाद(महाराणा प्रताप) मर्दाना(मानसिंह), हवाई(अकबर),लूणा, गजमुक्त, गजराज, रनमदार, सोनू व खांडेराव चक्रवाप तो वीर विनोद नामक ग्रंथ के अनुसार इस युद्ध में मानसिंह के अधीन 80000 सैनिक तथा प्रताप के पास 20000 सैनिक थे। इस युद्ध में प्रताप के साथ मुस्लिम/पठान सेनापति हकीम खाँ सूरी (हरावल भाग का नेतृत्व), मुख्य सेनापति राणा पूंजा(चंदावल भाग का नेतृत्व), झाला मन्ना /बिन्दा (घायल प्रताप जब युद्ध के मैदान से बाहर निकलते हैं तो उनका राजमुकुट धारण कर मेवाड़ सेना का नेतृत्व किया), ग्वालियर राजा रामशाह तंवर व उनके तीन पुत्र (शालिवान, भवानीसिंह व प्रतापसिंह), सरदारगढ़ का भीमसिंह, देवगढ़ का रावत सांगा, पुरोहित गोपीनाथ, चारण जैसा, जयमल मेड़तिया आदि थे।
हल्दीघाटी के युद्ध का सजीव चित्रण अब्दुल कादिर बँदायूनी ने अपनी पुस्तक मुन्तखब-उल-तवारीख में फारसी भाषा में किया, तो अबुल फजल ने अपनी पुस्तक अकबरनामा/आइने अकबरी में किया। ध्यान रहे- राजप्रशस्ति, राजप्रकाश ग्रंथ व जगदीश मंदिर प्रशस्ति में हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप को विजयी बताया गया है।
हल्दीघाटी का युद्ध इतना अनिर्णित रहा कि चार महीने बाद ही स्वयं अकबर को यहाँ आना पड़ा। 13 अक्टूबर, 1576 में अकबर ने स्वयं ही अजमेर से मेवाड़ पर चढ़ाई आरम्भ की। अकबर सेना सहित गोगुन्दा पहुँचा, परन्तु महाराणा प्रताप वहाँ से पहाड़ो में चले गए। नवम्बर के अन्त तक अकबर मेवाड़ में रहा लेकिन वह प्रताप को नहीं पकड़ सका। अकबर के जाने के बाद प्रताप ने मुगल सेनानायक को मारकर गोगुन्दा पर पुनः कब्जा कर लिया।
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद राणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ को अपना केन्द्र (राजधानी) बनाकर मुगल स्थानों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर अकबर ने (1577 ई.) में शाहबाज खाँ के नेतृत्व में एक सेना मेवाड़ की ओर भेजी। शाहबाज खाँ ने 1578 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया। लम्बे समय तक उसने कुम्भलगढ़ पर आक्रमण जारी रखा। रसद की कमी होने पर प्रताप किले का भार मानसिंह सोनगरा को सौंपकर पहाड़ों की ओर निकल गए। अंत में भीषण संघर्ष के बाद 3 अप्रैल, 1578 को शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ पर अधिकार कर लिया। वर्ष 1578 एवं 1579 में शाहबाज खाँ ने दो बार ओर मेवाड़ पर आक्रमण (अर्थात् कुल तीन बार कुम्भलगढ़ दुर्ग पर) किया, लेकिन वह असफल रहा।
1580 में अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को मेवाड़ अभियान पर भेजा, लेकिन वह भी सफल नहीं हो सका। 1582 ई. में प्रताप व अकबर के किलेदार सुल्तान खाँ मध्य दिवेर का युद्ध हुआ जिसे टॉड ने ‘मैराथन का युद्ध’ कहा ़क्योंकि यहाँ से प्रताप की विजय की शुरूरात हुई। ध्यातव्य रहे- दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया, जिसके परिणामस्वरूप अकबर द्वारा मेवाड़ कि 36 मुगल चौकियों को बंद करना पड़ा था। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य में स्थित दिवेर स्थल महाराणा प्रताप से संबंधित है, क्योंकि प्रताप ने मेवाड़ की भूमि को मुक्त कराने का अभियान दिवेर से प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे महाराण प्रताप ने माण्डलगढ़ व चिŸाड़गढ़ के अलावा पूरे मेवाड़ पर अपना साम्राज्य स्िापित कर लिया।
महाराणा प्रताप के विरूद्ध अंतिम मुगल आक्रमण (1584-1585 ई.) का नेतृत्व जगन्नाथ कच्छवाह ने किया था। लेकिन जगन्नाथ को भी कोई सफलता नहीं मिली। अब अकबर मेवाड़ के मामले में इतना निराश हो चुका था कि छुटपुट कार्रवाई उसे निरर्थक लगी और और बड़े अभियान के लिए वह अवकाश नहीं निकाल सका। 1586 से 1596 तक दस वर्ष की सुदीर्घ अवधि में प्रताप को जहाँ का तहाँ छोड़ दिया गया। इसे अघोषित संधि कहा जा सकता हैं अथवा अपनी विवशता की अकबर द्वारा परोक्ष स्वीकृति। अतः सर टोमस रो ने कहा कि “बादशाह ने मेवाड़ के राणा को आपस के समझौते के अधीन किया था, न कि बल से।“
महाराणा प्रताप ने अंतिम समय में 1585 ई. में ‘चावण्ड’ को अपनी आपातकालीन राजधानी (मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी) बनाया और हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात यहीं से मुगलों के विरूद्ध प्रतिरोध जारी रखा। यहीं पर 19 जनवरी, 1597 ई. को इनकी मृत्यु (प्रताप की मृत्यु के समय 57 वर्ष की उम्र थी) हो गई। इस प्रकार महाराणा प्रताप ने 24 वर्षों तक शासन किया। इनका दाह संस्कार बाण्डौली (उदयपुर) में किया गया जहाँ खेजड़ बाँध के किनारें इनकी आठ खंभों की छतरी बनी हुई है, तो प्रताप के घोड़े चेतक का चबूतरा बलीचा गाँव (राजसमंद) में बना हुआ है।
महाराणा मेवाड़ चेरिटेबल फाउन्डेशन-उदयपुर में स्थित है। महाराणा प्रताप के काल में रचित ग्रंथ :- चक्रपाणि मिश्र- विश्वबल्लभ (9 अध्याय, ज्ञान विज्ञान विषयक), मुहूर्तमाला, राज्याभिषेक पद्धति,व्यवहारदर्श, जैन मुनि हेमरतन सूरि- गौरा बादल पद्मिनी चरित चौपाई, सीता चौपाई, महिपाल चौपाई, अमरकुमार चौपाई, लीलावती हेमरतन चौपाई एवं कवि दुरसा आढ़ा ने प्रताप पर ‘विरूद्ध छतहरी’ एवं चारण कवि माला सांदू ने ‘झूलणा’ लिखे।
अमरसिंह (1597-1620 ई.)– यह महाराणा प्रताप के पुत्र थे जिनका राज्याभिषेक चावण्ड में हुआ। इनके पुत्र कर्णसिंह व सिसोदिया सरदारों के कहने पर अमरसिंह ने 5 फरवरी, 1615 ई. में मुगलों के साथ संधि की। इनकी छतरी आहड़ (उदयपुर) में बनी हुई हैं। ध्यातव्य रहें- अमरसिंह मेवाड़ का पहला महाराणा था, जिसने मुगलों के साथ संधि की तथा जहाँगीर ने एकमात्र मेवाड़ राज्य के शासक को मुगल दरबार में उपस्थित होने की छुट दी। ‘बादशाह ने मेवाड़ के राणा को आपस के समझौते से अधीन किया था, न कि बल से।’ ये कथन कर्नल टॉड ने कहा। मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह द्वितिय के समय में प्रथम श्रेणी के सामंतों की संख्या 16 थी। इसके बाद जगतसिंह प्रथम (1628-1652 ई.) मेवाड़ का शासक बना, जिसके काल में शाहजहाँ ने मेवाड़ से प्रतापगढ़ की जागीर को अलग किया।
कर्णसिंह (1620-1628 ई.)– यह मेवाड़ के पहले व्यक्ति थे, जिन्हें मुगल दरबार में एक हजार की मनसबदारी दी गई। इन्होंने 1623-1624 ई. में शाहजहाँ (शहजादा खुर्रम) को पिछोला झील के जगमन्दिर महल में शरण दी। ध्यातव्य रहें- इसी महल को देखकर शाहजहाँ ने मुमताज (437 ई.) की याद में ताजमहल बनवाया।
राजसिंह (1652-1680 ई.)– मेवाड़ के महाराणा राजसिंह का शासनकाल 1652-1680 तक रहा। इन्हें ‘विजय कटकातु’ की उपाधि दी गई। विश्व का सबसे बड़ा शिलालेख सिसोदिया वंशीय शासक महाराणा राजसिंह द्वारा स्थापित करवाया गया। महाराणा राजसिंह ने किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमती से विवाह किया, औरंगजेब द्वारा लगाए गए जजिया कर का पत्र लिखकर विरोध कर हिन्दू देवमूर्तियों का संरक्षण प्रदान किया तथा श्रीनाथ जी का मन्दिर (नाथद्वारा-राजसमन्द), अम्बा माता का मन्दिर (उदयपुर), द्वारिकाधीश मन्दिर (कांकरोली-राजसंमद) बनवाया आदि कारणों से औरंगजेब व इनके मध्य विरोध चलता रहा।
ध्यातव्य रहे- नाथद्वारा (सिहाड़) में बनास नदी पर श्रीनाथजी का प्रसिद्ध मंदिर है।
मंदिर में स्थित प्रतिमा श्रीनाथ जी की मूर्ति औरंगजेब के समय राजसिंह प्रथम द्वारा वृंदावन से यहाँ पर 1672 ई. में लाई गई थी।
दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ के पुत्रों में 1657 में जब मुगल उत्तराधिकार का युद्ध चल रहा था, तब राजसिंह ने ‘टीका दौड़’ के बहाने बाहरी क्षेत्रों पर धावे बोले। अनेक स्थानों को लूटते हुए जब वह खारी नदी के निकट पहुँचा तो दारा की सहायता के पत्र मिला। राजसिंह स्थिति को भांपते हुए दारा को कहलवा दिया कि मेरे लिए सभी राजकुमार बराबर है। इसी का परिणाम है कि औरंगजेब ने शासक बनते ही राजसिंह का पद और स्तर बढ़ाया।
ध्यातव्य रहे- ‘चूण्डावत माँगे सैनानी, सर काट दे दियो क्षत्राणी’ पंक्ति हाड़ी रानी सहल कंवर के प्रसिद्ध है क्योंकि इन्होंने अपना सर काटकर राजसिंह की सलूम्बर जागीर के सांमत अपने पति रतनसिंह के पास भेज दिया था।
अमरसिंह द्वितिय (1698-1710 ई.) – इन्होंने आमेर के सवाई जयसिंह के साथ अपनी पुत्री चन्द्र कँवर का विवाह सशर्त (देबारी समझौता के तहत चन्द्र कुँवरी से उत्पन्न पुत्र आमेर का उत्तराधिकारी होगा) किया।
महाराणा संग्राम सिंह द्वितिय(1710-1734 ई.) – 1733 ई. में मराठों ने आमेर के शासक सवाई जयसिंह को मंदसौर (मध्य प्रदेश) के युद्ध में परास्त किया। सवाई जयसिंह मेवाड़ के महाराणा संग्राम के पास पहुँचा और राजपुताने में मराठों के बढ़ते हस्तक्षेप को रोकने के लिए राजपूतों को इकट्ठा करके मराठों के विरूद्ध मुकाबला करने की योजना बनाने के लिए एक सम्मेलन बुलाने की योजना बनाई। सम्मेलन बुलाने का स्थान हुरड़ को तय किया गया, जो भीलवाड़ा में स्थित है और तारीख 17 जुलाई, 1734 तय कि गई व अध्यक्ष संग्राम सिंह को बनाया गया लेकिन तभी जनवरी 1734 में संग्राम सिंह की मृत्यु हो जाने के कारण अध्यक्षता जगत सिंह द्वितिय ने की, परन्तु राजाओं के आपसी स्वार्थ के कारण यह सम्मेलन असफल रहा।
संग्रामसिंह ने उदयपुर में सहेलियों की बाड़ी बनवाई।
जगतसिंह द्वितिय (1734- 1751 ई.)– 17 जुलाई,1734 को आयोजित हुरड़ा सम्मेलन की अध्यक्षता महाराणा जगतसिंह द्वितिय ने की, तो इन्होंने अजमेर दरगाह के लिए चार गाँव अनुदान में दिए थे।
भीमसिंह(1778-1828 ई.) – इनके शासनकाल में इनकी पुत्री कृष्णा कुमारी के कारण मारवाड़ के मानसिंह राठौड़ व आमेर के जगतसिंह द्वितिय के मध्य 13 मार्च,1807 ई. में गिंगोली का युद्ध परबतसर (नागौर) में हुआ, जिसमें जगमसिंह विजयी हुआ, टोंक के आमीर खाँ पिंडारी के कहने पर 1810 ई. में कृष्णा कुमारी ने आत्महत्या कर ली। भीमसिंह ने 1818 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि कर ली।
महाराणा स्वरूप सिंह(1842- 1861 ई.)– मेवाड़ राज्य में कन्या वध (1844 ई.), डाकन प्रथा(1853 ई.), सती प्रथा(1861ई.) और समाधि प्रथा पर प्रतिबंध महाराणा स्वरूप सिंह के समय ही लगाया गया था। उल्लेखनीय है कि इनकी मृत्यु पर इनकी पासवान सती हुई, जो मेवाड़ महाराणाओं के साथ सती होने की अंतिम घटना थी। महाराणा स्वरूप सिंह ने 1857 ई. के विद्रोह में ब्रिटिश सरकार का साथ दिया था।
महाराणा शंभु सिंह (1861-1874ई.)– महाराणा स्वरूप सिंह का दŸाक पुत्र जो 1861 ई. में मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। महाराणा शंभु सिंह की मृत्यु 16 जुलाई, 1874 को हुई, तो वहीं ये मेवाड़ के पहले शासक थे जिनके साथ कोई भी रानी या पासवान सती नहीं हुई। जब ब्रिटिश सरकार ने महाराणा शंभु सिंह को ग्रोड कमाण्डर ऑफ द स्टार ऑफ इंडिया का खिताब देने की बात कही, तो उन्होंने कहा कि मेवाड़ के महाराणा तो पहले ही हिन्दूजा सूरज कहलाते है, उन्हें स्टार खिताब देने की जरूरत नहीं हैं।
महाराणा सज्जन सिंह(1874-1884ई.)– ये बागोर ठिकाने के शक्तिसिंह के पुत्र थे और राज्यारोहण के समय नाबालिग होने के कारण शासन प्रबंध एजेंसी कौंसिल ने चलाया। 1877 ई. के दिल्ली दरबार में इन्होंने भाग लिया, तो वहीं 14 फरवरी, 1878 ई. को मेवाड़ राज्य ने कम्पनी के साथ नमक समझौता किया। महाराणा सज्जन सिंह ने सज्जन यंत्रालय छापाखाना स्थापित करवाया। 23 नवम्बर,1881 ई. को लार्ड रिपन ने चिŸाड़ आकर इनको ग्राण्ड कमाण्डर ऑफ द स्टार ऑफ इण्डिया का खिताब पदान किया।
महाराणा फतेहसिंह(1884-1930ई.)– ये महाराणा सज्जन सिंह के दŸाक पुत्र थे, जिन्होंने 1889ई. में उदयपुर में वाल्टरकृत राजपूत हितकारिणी सभा की स्थापना की, जिसका उद्देश्य राजपूतों में बहुविवाह, बाल विवाह व फिजूलखर्ची रोकना था। इन्होंने 1889ई. में महारानी विक्टोरिया के 50 वर्ष पूरे होने पर सज्जन सिंह निवास बाग में विक्टोरिया हॉल का निर्माण करवाया, तो वहीं ब्रिटिश राजकुमार कनॉट के मेवाड़ आगमन पर कनॉट बाँध का निर्माण करवाया जिसका नाम बाद में फतेहसागर रखा गया। फतेहसिंह 1903ई. में दिल्ली दरबार में शामिल होने पहुँचे, लेकिन केसरीसिंह बारहठ के चेतावनी के चूंगट्या पढ़कर दरबार में शामिल हुए बिना लौट आए।
महाराणा भूपाल सिंह(1930-1956ई.)– ये मेवाड़ रियासत के अन्तिम शासक थे। 18 अप्रैल,1948ई. को उदयपुर रियासत का विलय संयुक्त राजस्थान में किया गया। राज्य के एकीकरण के बाद इनको महाराज प्रमुख बनाया गया।

अन्य सिसोदिया राज्य

डूँगरपुर राज्य– इसकी स्थापना 1177ई. में सांमत सिंह गुहिल ने की थी, जो कर्णसिंह का पुत्र था। डूँगरपुर के शासकों द्वारा रावल एवं महारावल की उपाधि धारण की गई थी। डूँगरसिंह ने 1358 ई. में डूँगरपुर नगर बसाकर अपनी राजधानी बड़ौदा से डूँगरपुर स्थानांतरित करी। 1527 ई. में वागड़ शासक महारावल उदयसिंह खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त होने के बाद उनके दो पुत्रों ने उदयसिंह द्वारा पूर्व में किए बँटवारें के अनुसार वागड़ राज्य को दो हिस्से में बाँट लिया। बडे पुत्र पृथ्वीराज ने डूँगरपुर व छोटे पुत्र जगमाल ने बाँसवाड़ा का राज्य सँभाला। बाँसवाड़ा शहर के भील शासक को पराजित करने के बाद जगमाल सिंह ने महारावल का ताज पहना था। 1573 ई. में अकबर ने आक्रमण करके इसे जीत लिया। 1577 ई. में महारावल आसकरण ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। आसकरण की पटरानी प्रेमल देवी ने डूँगरपुर में सन् 1586 में भव्य नौलखा बावड़ी का निर्माण करवाया। 1818 ई. में यहाँ के शासक महारावल जसवंतसिंह द्वितिय ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। सन्् 1845 ई. में इनके शासन प्रबंध से असंतुष्ट होकर अंग्रेज सरकार ने अपदस्थ कर वृन्दावन भेज दिया था। ध्यान रहे- राजिंसंह डूँगरपुर का संबंध क्रिकेट खेल से रहा है।
बाँसवाड़ा राज्य– 1518 ई. में बाँसवाड़ा नगर की नींव जगमाल के द्वारा रखी गई थी, तो 1527 ई. में वागड़ के गुहिल शासक महारावल उदयसिंह की मृत्यु के बाद राज्य का माही नदी के दक्षिण का हिस्सा उसके पुत्र जगमाल के हिस्से में आया। इसके वंषज उम्मेदसिंह ने 1818 ई. में अंग्रेजों से संधि कर ली।
प्रतापगढ़(देवलिया) राज्य– यहाँ के शासक सूर्यवंषी क्षत्रिय थे, जो मेवाड़ के गुहिल वंष की सिसोदिया शाखा से संबंधित थे। इन्हें महारावत कहा जाता था। महाराणा कुम्भा के भाई क्षेमकर्ण के पुत्र सूरजमल ने 1508 ई. में देवलिया (देवगढ़) बसाया। 1552 ई. महारावत विक्रमसिंह (बीका) ने सादड़ी के स्थान पर देवलिया को अपनी राजधानी बनाया। महारावत प्रतापसिंह ने सन् 1699 ई. के लगभग डोडेरिया खेड़ा स्थान पर प्रतापगढ़ कस्बा बसाया। 1756 ई. में सालिमसिंह देवलिया का शासक बना। 1761 ई. में मराठा सेनापति मल्हार राव होल्कर ने प्रतापगढ़ पर आक्रमण कर उसे घेर लिया परन्तु महारावत सालिमसिंह ने कुषलतापूर्वक उन्हें वहाँ से घेरा उठाकर जाने को मजबूर कर दिया। महारावत सालिमसिंह का अक्टूबर, 1774 ई. में देहवसान हो गया तथा उनके पुत्र सामन्त सिंह 7 वर्ष की आयु में नए महारावत बने। मराठों की लूट-खसोट एवं आर्थिक शोषण से तंग आकर महारावत सामन्तसिंह ने 5 अक्टूबर, 1818 ई. में अंग्रेजो से संधि कर ली। महारावत सामन्तसिंह के दूसरे पौत्र दलपतसिंह को डूँगरपुर महारावल जसवंतसिंह (द्वितिय) ने गोद लेकर अपना दŸाक पुत्र बना लिया। बाद में महारावत ने डूँगरपुर गौद लिए गए पौत्र दलपतसिंह, जो कि डूँगरपुर महारावल के जीते जी अंग्रेजों शासन पर बैठा दिया गया था, को बुलाकर उसे गद्दी पर
बैठा दिया। इस प्रकार दलपतसिंह देवलिया में रहते हुए दोनों राज्यों का शासन देखने लगे। जनवरी, 1844 में महारावत सामंतसिंह का देहवासन हो गया। 1857 की स्वतंत्रता की क्रांति महारावत दलपतसिंह ने अपनी सेना अंग्रेजो की सहायतार्थ नीमच छावनी भेजी। महारावत उदयसिंह ने 1867 ई. में देवलिया के स्थान पर प्रतापगढ़ को अपनी राजधानी बनाया।
शाहपुरा राज्य– इस छोटे से राज्य की स्थापना मेवाड़ शासक अमरसिंह प्रथम के पौत्र सुजानसिंह ने 1631 ई. मे की थी। प्रारंभ में यहा का शासन मेवाड़ एवं मुगलों के नियंत्रण में रहा। 18वीं सदी के बाद यहाँ के शासकों ने अंग्रेजों से संधि कर ली।

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