गुर्जर-प्रतिहार राजवंश

गुर्जर प्रतिहार वंश का शासन मुख्यतः छठी से 10वीं शताब्दी तक रहा हैं। प्रारम्भ में इनकी शक्ति का मुख्य केन्द्र मारवाड़ मण्डौर व जालौर का भीनमाल क्षेत्र था। बाद में प्रतिहारों ने उज्जैन तथा कन्नौज को अपनी का केन्द्र बनाया। विदेशी यात्री सुलेमान ने गुर्जर-प्रतिहार राजवंश की सैन्य शक्ति एवं समृद्धि का उल्लेख किया हैं। इतिहासकार ‘आर. सी. मजूमदार’ के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों ने 6वीं से 11वीं शताब्दी तक अरब आक्रमणकारियों के बाधक का काम किया। 8वीं से 10वीं शताब्दी तक राजस्थान में प्रतिहार वंश का वर्चस्व रहा। डॉ. आर. सी. मजूमदार के अनुसार – प्रतिहार शब्द का प्रयोग मण्डौर की प्रतिहार जाति के लिए हुआ है क्योंकि प्रतिहार अपने आप को लक्ष्मणजी का वंशज मानते हैं। लक्ष्मण भगवान राम की सेवा में एक प्रतिहार का कार्य करते थे, इसलिए वह लोग प्रतिहार कहलाए। कालान्तर में यह गुर्जरात्र क्षेत्र में शासन करने से गुर्जर प्रतिहार कहलाए। अरबी यात्रियों ने गुर्जर को जुर्ज भी कहा हैं। अल मसूदी प्रतिहारों को ‘अल गुर्जर’ तथा प्रतिहार राजा को ‘बोरा’ कहकर पुकारता था। नीलगुण्ड,देवली,रामनपुरा व करहाड़ के अभिलेखों में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया हैं। मुहणोत नैनसी ने गुर्जर प्रतिहारों की 26 शाखाओं का वर्णन किया है, तो सबसे प्राचीन एवं महत्तवपूर्ण मण्डौर के प्रतिहार थे। ध्यान रहें- गुर्जर प्रतिहार जोधपुर में स्थित चामुण्डा माता को अपनी कुल देवी के रूप में पूजा करते थे, तो मण्डौर के प्रतिहार क्षत्रिय माने गये हैं।

  • मण्डौर के गुर्जर प्रतिहार :-

हरिश्चंद्र- जोधपुर के घटियाला शिलालेख के अनुसार छठीं शताब्दी के द्वितिय चरण में हरिश्चंद्र नाम का एक विद्ववान ब्राह्मण था। इसे ‘रोहिलद्धि’ भी कहा जाता था। हरिश्चंद्र को ‘प्रतिहारों का गुरू/गुर्जर प्रतिहारों का मूल आदिपुरूष/प्रतिहार वंश का संस्थापक/गुर्जर प्रतिहारों का मूल पुरूष’ कहते हैं। इसकी दो पत्नियों में से एक ब्राह्मण तथा दूसरी क्षत्रिय थी। क्षत्रीय पत्नी का नाम भद्रा था। ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतान ब्राह्मण प्रतिहार तथा क्षत्रिय पत्नी की सन्तानें क्षत्रिय प्रतिहार कहलायी। इसकी क्षत्रिय पत्नी के चार पुत्र हुए जिनके नाम भोगभट्ट,कद्धक,रज्जिल और दह थे। इन चारों पुत्रों ने मिलकर मांडयपुर को जीता और मण्डौर के चारों ओर प्राचिर का निर्माण करवाया तथा गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य की स्थापना की, इसी कारण हरिश्चंद्र की राजधानी भी मांडयपुर मानते हैं।
रज्जिल- हरिश्चन्द्र के बाद मण्डौर की वंशावली हरिश्चंद्र के तीसरे पुत्र रज्जिल से प्रीरंभ होती है। 560 ई. में रज्जिल ने प्रतिहार राजवंश की स्थापना करते हुए अपने राज्य की राजधानी मण्डौर (जोधपुर) को बनाकर मण्डौर में सबसे पहले राजसूय यज्ञ को आधार दिया।
नागभट्ट प्रथम – नागभट्ट प्रथम रज्जिल का पोता था, जो बड़ा महत्वकांक्षी था, अतः इसने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। इसी उद्देश्य से उसने मरू प्रदेश में मेड़ता को जीता तथा मण्डौर से मेड़ता (मेड़न्तकपुर) को अपनी राजधानी बनाया और इसने भीनमाल (जालौर) तक अपना साम्राज्य बढ़ाया।

  • भीनमाल(जालौर), अवन्ति व कन्नौज के प्रतिहार :-

नागभट्ट प्रथम(730-760 ई़़. )- नागभट्ट प्रथम जालौर के गुर्जर प्रतिहारों का संस्थापक कहा जाता हैं। भीनमाल की इस शाखा को ‘रघुवंशी प्रतिहार शाखा’ भी कहते है। नागभट्ट प्रथम को ‘नागावलोक’ तथा इसके दरबार को ‘नागावलोक दरबार’ कहते है। इसने भीनमाल को चावड़ों से जीता तथा भीनमाल (हेव्नसांग ने इसे पी-लो-मो-लो कहा है) को अपनी राजधानी बनाया। इसके पश्चात् इसके आबू, जालौर आदि को विजित किया तथा उज्जैन (अवन्तिका) को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। नागभट्ट प्रथम को ‘नारायण की मूर्ति का प्रतीक,राम का प्रतिहार, क्षत्रिय, ब्राह्मण तथा इन्द्र के दंभ का नाशक’ भी कहते हैं। ग्वालियर अभिलेख के अनुसार नागभट्ट प्रथम ने म्लेच्छ (अरबी) सेना को पराजित कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया अतः नागभट्ट प्रथम को ‘प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक’ कहा जाता है। इसकी जानकारी हमें पुलकेशियन द्वितिय के एहोल अभिलेख से प्राप्त होती है। ध्यान रहे- ब्रह्म सिद्धांतों के लेखक भीनमाल निवासी ब्रह्मगुप्त ने रहकर गणित संबंधी ज्ञान का प्रसार किया था।
वत्सराज(783-95 ई.)- वत्सराज देवराज का पुत्र था जो बड़ा प्रतापी राजा था। इसे ‘रणहस्तिन’ (युद्ध का हाथी) की उपाधि कहा जा सकता है। वत्सराज को ‘प्रतिहार राज्य की नींव डालने वाला शासक’ कहा जा सकता हैं। वत्सराज के समय कन्नौज पर पाल वंश, दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश व गुर्जर प्रतिहार वंश के शासकों की नजर थी (ध्यान रहे- गुर्जर- प्रतिहार, पाल एवं राष्ट्रकूट शासन में केन्द्रिय राजसत्तात्मक राजतंत्र शासन था, तो शासन को सुविधा की दृष्टि से प्रातो में बांटा गया था, जिसका अधिकारी राजस्थानीय राजपुरूष कहलाता था)।कन्नौज को लेकर उक्त तीनों राजवंशों में संघर्ष में राजवंशो में संघर्ष हुआ जिसे त्रिकोणी/त्रिदलीय संघर्ष कहते हैं, जिसमें राजपुताना के गुर्जर प्रतिहार वंश के शासकों़ ने भाग लिया। 647 ई. के लगभग कन्नौज के शासकों का शासन लड़खड़ा गया। वत्सराज ने इसका फायदा उठाते हुए कन्नौज पर आक्रमण कर वहाँ के शासक इंद्रायुद्ध को पराजित कर कन्नौज को अपने अधिकार ूमें कर लिया। यह बात पाल वंश के शासक धर्मपाल को पसंद नहीं आई और उसने वत्सराज को पराजित करने के लिए वत्सराज पर आक्रमण कर दिया। इस मुंगेर (मुदगगिरी) युद्ध में वत्सराज प्रतिहार विजयी हुआ। वत्सराज की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश के शासक ध्रुव प्रथम ने जालौर पर आक्रमण किया, इस युद्ध में वत्सराज की पराजय तथा ध्रुव प्रथम की विजय हुई। प्रतिहार एवं पाल शासकों पर अपनी विजय की खुशी में ध्रुव ने गंगा व यमुना के चिह्ननों को राष्ट्रकूट कुलचिह्नन (एम्बलम) में सम्मिलित किया।
वत्सराज के समय 778 ई. में उद्योतन सूरी द्वारा ‘कुवलयमाला ग्रन्थ’ की तथा जिनसेन सूरी द्वारा 781 ई. में ‘हरिवंश पुराण’ की रचना की गई। वत्सराज शैव मत की अनुयायी था। वत्सराज ने औसियाँ (जोधपुर) में एक सरोवर तथा महावीर स्वामी का एक मंदिर बनवाया का एक मंदिर बनवाया जो कि ‘पश्चिम भारत का प्राचीनतम जैन मंदिर माना जाता है। ’
नागभट्ट द्वितिय (795-833 ई.) – नागभट्ट द्वितिय वत्सराज व उसकी रानी सुन्दर देवी का पुत्र था। नागभट्ट द्वितिय ने 806 ई. से 808 ई. के मध्य राष्ट्रकूट वंश के शासक गोविंद तृतीय से युद्ध किया, जिसमें नागभट्ट द्वितिय की हार हुई। नागभट्ट द्वितिय ने कन्नौज के शासक चक्रायुद्ध को परास्त कर कन्नौज राज्य को जीतकर अपनी राजधानी बनाया। इस प्रकार नागभट्ट द्वितिय के शासनकाल से प्रतिहारों की कन्नौज शाखा का आरंभ हुआ। कन्नौज का शासक चक्रायुद्ध पालवंश के धर्मपाल का आश्रित राजा था, अतः धर्मपाल ने नागभट्ट द्वितिय पर आक्रमण कर दिया। इन दोनों के मध्य मुण्डौर नामक स्थान पर युद्ध हुआ, जिसमें नागभट्ट द्वितिय की विजय हुई। युद्ध में विजय के बाद नागभट्ट द्वितिय ने ‘परमभट्टारक,महाराजाधिराज,परमेश्वर’ की उपाधि ग्रहण की। नागभट्ट द्वितिय के समय प्रतिहार राज्य उत्तरी भारत में एक शक्तिशाली राज्य बन चुका था। 833 ई. में नागभट्ट द्वितिय ने गंगा में जल समाधि ली। नागभट्ट द्वितिय के बाद उसका पुत्र रामभद्र (833- 36 ई.) प्रतिहारों का शासक बना। रामभद्र के समय मण्डौर के प्रतिहार स्वतंत्र हो गए। तथा अन्य कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं हुई। रामभद्र को पालों के विरूद्ध हार का सामना करना पड़ा।
मिहिर भोज प्रथम(836-885 ई.)- मिहिर भोज रामभद्र का पुत्र था। मिहिर भोज की माता का नाम अप्पा देवी था। ग्वालियर प्रशस्ति में इसके बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं। मिहिर भोज अपने पिता की हत्या कर प्रतिहारों का शासक बना, इस कारण मिहिरभोज को ‘प्रतिहारों में पितृहंता’ कहा जाता है। इसके शासनकाल में प्रतिहारों की शक्ति चरम सीमा पर थी। मिहिरभोज उत्तरी भारत में अपने समय का सबसे महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली शासक था।
मिहिरभोज ने वेष्णव धर्म को संरक्षण प्रदान किया।यह भगवान विष्णु का उपासक था इसलिए इसे ’आदिवराह (ग्वालियर अभिलेख) व प्रभास पाटन (दौलतपुर अभिलेख)’ आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है।अरब यात्री सुलेमान ने इसे ‘अरबों का अमित्र’ तथा ‘इस्लाम का शत्रु/इस्लाम की दीवार’ बताया है, तो हिन्दुस्तान को काफिरों का देश कहा है। मिहिरभोज ने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय से मालवा को छीना। मिहिर भोज ने पाल वंश के शासक देवपाल व विग्रह पाल (नारायण पाल) तथा राष्ट्रकूट वंश के कृष्ण तृतीय को हराकर अन्तिम रूप से कन्नौज पर अपना अधिकार जमाया। इसकी जानकारी हमें ग्वालियर शिलालेख एवं अरबी यात्री सुलेमान के यात्रा वृतांत से प्राप्त होती है।
महेन्द्रपाल प्रथम(885-908 ई.)- मिहिर भोज के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम प्रतिहारों का राजा बना। महेन्द्रपाल को ‘निर्भय नरेश’ कहा गया। प्रतिहारों में यह प्रथम शासक था, जिसने ’परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि धारण की थी। इसका दरबारी साहित्यकार एवं गुरूराजशेखर था, जिसने कर्पूरमंजरी, काव्यमीमांसा, बाल रामायण, बालभारत (प्रचंड पाण्डव) तथा हरविलास नामक ग्रंथों की रचना की। राजशेखर ने अपनी पत्नी अवन्ति सुंदरी के कहने पर ही ‘कर्पूरमंजरी’ की रचना की थी।
महिपाल प्रथम(913-943 ई.)- महिपाल प्रथम के शासनकाल से प्रतिहारों का पतन शुरू होता है। महिपाल के समय अरब यात्री (बगदाद निवासी) अलमसूदी यात्रा पर आया था।
महेन्द्रपाल द्वितिय (943-948 ई.)- महिपाल प्रथम के बाद उसका व प्रज्ञाधना का प्रथम पुत्र महेन्द्रपाल द्वितिय गद्यी पर बैठा। इसके पश्चात् देवपाल राजा बना। प्रतिहार शासक राज्यपाल (राजपाल) के समय महमूद गजनवी ने कन्नौज पर 1018 ई. में आक्रमण किया जिससे डरकर राज्यपाल/राजपाल कन्नौज छोड़कर भाग गया। राजपाल की कायरता के कारण भारतीय राजाओं ने संघ बनाकर इसे मार डाला। इसके बाद त्रिलोचनपाल प्रतिहारों का शासक बना, जिसे महमूद गजनवी ने 1019 ई. में पराजित किया। प्रतिहार वंश का अन्तिम शासक यशपाल (1036 ई.) था। 11वीं शताब्दी में कन्नौज पर गहड़वाल वंश ंने अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इस प्रकार प्रतिहारों के साम्राज्य का 1093 ई. में पतन हो गया।
ध्यातव्य रहें- राजस्थान में गुर्जर प्रतिहार शैली का विकास 8वीं शताब्दी में हुआ, इसे महामरू शैली भी कहा जाता है। राजस्थान में इस शैली के केकीन्द (मेड़ता, नागौर) का नीलकण्ठेश्वर मंदिर, बाड़मेर का किराडू व सोमेश्वर मंदिर, आहड़ (उदयपुर) का आदिवराह मंदिर, आभानेरी (दौसा) का आदिवराह मंदिर, राजोरगढ़ (अलवर) का नीलकण्ठ मंदिर व औसियाँ (जोधपुर) का हरिहर मंदिर प्रमुख है। बरोली (बाड़ोली) मंदिर परिसर का संबंध भी गुर्जर प्रतिहार वंश के शासकों से रहा हैै।

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