चौहान राजवंश –

इतिहासकार डॉ. डी. आर. भण्डारकर ने चौहानों का ब्राह्यण वंश से उत्पन्न होना माना गया है। चौहान काल की जानकारी बिजौलिया शिलालेख देता हैं। चौहानों का मूल स्थान सपादलक्ष माना जाता है, तो चौहानों की प्रथम राजधानी ‘अहिछत्रपुर’ (नागौर) थी। सबसे पहले चौहानों का हंसोट शिलालेख पाया गया।

वासुदेव चौहान– इन्होंने 551ई. में साँभर (सपादलाक्ष) में चौहान वंश की स्थापना की अतः इन्हें ‘चौहानों का आदिपुरूष’ कहते हैं। सोमेश्वर द्वारा निर्मित बिजौलिया शिलालेखानुसार चौहानों की उत्पत्ति वत्सगोत्र के ब्राह्यणों से हुई है तथा साँभर झील का निर्माण वासुदेव ने करवाया, वास्तविकता में यह झील प्राकृतिक है।
ध्यातव्य रहे– प्रांरभ में चौहानों गुर्जर प्रतिहारों के सामन्त थे, परन्तु चाहमान वंशज गूवक प्रथम(वासुदेव के वंशज दुर्लभराज का पुत्र) ने स्वतंत्र शासन स्थापित कर गुर्जरों की अधीनता अस्वीकार की, तो गूवक प्रथम ने चौहानों के अराध्य देव हर्षनाथ मंदिर का निर्माण हर्षनाथ पहाड़ी(सीकर) में करवाया।
अजयराज(1105-1133ई.)- इन्होनें 1113 ई. में अजयमेरू नगर बसाकर साँभर से अजमेर को सबसे पहले चौहानों की राजधानी बनाया। अजयराज ने पंजाब के पूर्वी भाग और संयुक्त प्रांत के पश्चिमी भाग को विजित किया।
अर्णोराज/आनाजी (1133-1155ई.)– अर्णोराज ने तुर्क आक्रमणाकारियों को बुरी तरह हराया तथा मालवा के नरवर्मन को पराजित किया। इन्होंनें तुर्को को पराजित करके 1137ई. में आनासागर झील व पुष्कर में वराह मंदिर बनवाया। चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज ने अपनी पुत्री कांचन देवी का विवाह अर्णोराज से किया। इनके पुत्र जग्गदेव ने इनकी हत्या कर दी अतः इसे ‘चौहानों में पितृहन्ता’ भी कहा जाता हैं।
ध्यातव्य रहें– चालुक्य शासक कुमारपाल से हारने पर अर्णोराज की प्रतिष्ठा को काफी धक्का लगा।
विग्रहराज चतुर्थ/बिसलदेव (1158-1163ई.)– यह विद्वानों का आश्रय दाता था अतः इसे‘कवि बान्धव/र्किट बंधु’ के नाम से भी जाना जाता हैं। ललितविग्रहराज का लेखक सोमदेव(सोमेन्द्र) इनका दरबारी कवि था। इन्होंने हरिकेली नाटक की रचना की। बीसलदेव ने बीसलपुर तालाब (वर्तमान बीसलपुर बाँध के स्थान पर), 12वीं शताब्दी में बीसलपुर की स्थापना व संस्कृत पाठशाला (कण्ठ भरण) अजमेर में बनवाई, जिसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1198 ई. में तुड़वाकर ‘अढ़ाई दिन का झौंपड़ा’ बनवा दिया, जहाँ पंजाबशाह नामक पीर की याद में ढाई दिन का उर्स(मेला) भरता है इसी कारण इसका नाम अढाई दिन का झोपड़ा पड़ा। इसने चौहान साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार कर पहली बार ‘दिल्ली को चौहानो की राजधानी ’ बनाई, अतः इसका काल चौहानों का स्वर्णकाल कहलाता है। बिजौलिया शिलालेख से ज्ञात होता है कि, विग्रहराज चतुर्थ ने दिल्ली को अपने अधीन किया था, तो चौहान शासक विग्रहराज चतुर्थ के राज्यकाल के दिल्ली का शिवालिक स्तम्भ अभिलेख उत्कीर्ण करवाया गया। विग्रहराज चतुर्थ ने जवालिपुर का नाम ज्वालापुर परिवर्तित किया। विग्रहराज के बारे में किर्ल हार्न ने कहा है कि ‘वह उन शासकों में से एक था जो कालिदास व भवभूति से होड़ कर सकता था।’
पृथ्वीराज चौहान(1177-1192ई.)– इनके पिता सोमेश्वर व माता कर्पूरी देवी थी। यह अजमेर के चौहान वंश के अंतिम प्रतापी शासक थे, जिन्होंने दिल्ली औैर अजमेर राजधानियों से शासन किया। यह मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में शासक बने, अतः शासन की बागडोर इनकी माँ ने सम्भाली। पृथ्वीराज चौहान तृतीय को ‘राय पिथौरा/दल पुंगल ( विश्व विजेता)’ की उपाधि दी गई। पृथ्वीराज ने अपनी दिग्विजय की नीति के तहत 1182 ई. में ‘महोबा के युद्ध/तुमुल का युद्ध’(उŸार प्रदेश) में परमार्दी देव चन्देल (आल्हा व उदल परमार्दि देव के सेनापति) को पराजित किया व कन्नौज के राजा जयचन्द गहड़वाल को हराकर उसकी पुत्री संयोगिता के साथ गंधर्व विवाह किया।
पृथ्वीराज तृतीय और मोहम्मद गौरी के मध्य दो युद्ध लड़े गए थे- तराइन का प्रथम युद्ध- 1191 ई. में पृथ्वीराज तृतीय व मोहम्मद गौरी के मध्य करनाल (हरियाणा) के मैदान में हुआ था, जिसमें पृथ्वीराज तृतीय विजयी हुए। तराइन का द्वितिय युद्ध- 1192 ई. में पृथ्वीराज तृतीय व मोहम्मद गौरी के मध्य करनाल (हरियाणा) के मैदान में जिसमें मोहम्मद गौरी विजयी हुआ। गौरी के आक्रमण के समय पृथ्वीराज तृतीय को परामर्श देने वाला मंत्री कदम्बवास(यह मंत्री जो कैलाश या कैमास के नाम से भी जाना जाता है) था।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (जो सुफी सिलसिले से संबंधित है) मोहम्मद गौरी के साथ पृथ्वीराज तृतीय के साथ के समय राजस्थान आया था। जयानक, चन्दबरदाई(पृथ्वीराज चौहान के मित्र), वागीश्वर व जनार्दन पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि थे।

ध्यातव्य रहे- ‘चार बाँस चौबिस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है, मत चूके चौहान’ यह उक्ति चन्दरबरदाई की है। पृथ्वीराज चौहान के घोडे़ का नाम नाट्यरम्भा था।

रणथम्भौर के चौहान
गोविन्दराज चौहान- गोंविन्दराज पृथ्वीराज तृतीय के पुत्र थे, जिन्होंने कुतुबुद्दीन ऐबक की सहायता से रणथम्भौर में 1194 ई. में चौहान वंश का स्थापना की।
हम्मीर देव चौहान(1282-1301ई.)- रणथम्भौर के चौहानों में सर्वाधिक प्रतापी व अन्तिम शासक हम्मीर देव चौहान (पिता- जैत्रसिंह(जयसिंह), माता- हीरादेवी, पत्नी- रंगदेव व पुत्री- देवलदे) थे, जो हठ के लिए प्रसिद्ध थे। इनके लिए कहा गया है कि ‘सिंह सवन सत्पुरूष वचन, कदलन फलत इक बार। तिरिया तेल, हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार।।’ इन्होंने दिग्विजय की नीति अपनाई जिसके तहत हम्मीर ने ‘कोटियजन यज्ञ’ अश्वमेध यज्ञ जैसा करवाया। इनके राज राजपुरोहित पंडित विश्वरूप थे। कवि बीजादिव्य (बिजादित्य/विजयादित्य) हम्मीरदेव चौहान के दरबारी कवि थे।
जलालुद्दीन खिलजी ने 1290ई. में झाइन के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया, जिसमें उसे सफलता मिली। इसी दुर्ग को बचाने का हम्मीर ने प्रयत्न किया, परंतु गुरूदास सैनी जिसने चौहान सेना का नेतृत्व किया था, मारा गया और तुर्क सेना रणथम्भौर की और आगे बढ़ी। गढ़ को लेने के लिए मजनिक, सेवात तथा गरगछ बनाने की व्यवस्था की गई, लेकिन उसे लेने के सभी प्रयत्नों में असफलता मिलने के कारण सुल्तान को दिल्ली लौट जाना पड़ा। ज्योंही सुल्तान की सेना लौट गई कि हम्मीर ने झाइन पर पुनः अपना स्थापित कर लिया। झाइन की विजय से जलालुद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर दुर्ग का घेरा डाल दिया। अमीर खुसरो एवं बरनी की तारीख-ए-फीरोजशाही के अनुसार दुर्ग को जीतने के जलालुद्दीन के समस्त प्रयास असफल रहे, तो सुल्तान जलालुद्दीन ने कहा कि – ऐसे 10 दुर्गों को तो मैं मुसलमान के एक बाल के बराबर महत्व नहीं देता। अलाउद्दीन खिलजी ने 1300 ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए सेना भेजी, जिसका नेतृत्व उलूग खां और नुसरत खां को सौंपा गया। इस बार खिलजी सेनाध्यक्ष हिन्दुवाट पार करके झाइन लेने में सफल हो गया। जब नुसरत खां प्राचीरों की तोड़फोड़ में लगा हुआ था कि किले से आने वाले गोले के वार से वह मारा गया। हम्मीर देव ने अल्लाउद्दीन खिलजी की बेगम (मराठा रानी चिमना) व विद्रोही सेनापति (मंगोल महमूद शाह/मीर मुहम्मद शाह) को शाह को शरण दी, जिससे नाराज होकर 1301 ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण कर दिया। 11 जुलाई, 1301 ई. में अलाउद्दीन खिलजी (अलाउद्दीन खिलजी की सेना नेतृत्व उलूग खाँ ने किया) व हम्मीरदेव के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें हम्मीरदेव के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने वीरगति (‘केसरिया’)प्राप्त की। इनकी रानी रंगा देवी व पुत्री देवलदे के नेतृत्व में राजपूत महिलाओं ने ‘जल जौहर’ किया। यह राजस्थान का प्रथम जल जौहर व साका था। रणथम्भौर की विजय के उपरांत अलाउद्दीन खिलजी ने इस दुर्ग को उलूग खाँ के अधिकार में सौंप दिया। अल्लाउद्दीन ने इस दुर्ग को जितने के बारे में कहा कि ‘आज कुफ्र का गढ़, इस्लाम का घर हो गया’। ध्यान रहे- राजस्थान में मुस्लिम सŸा के प्र्रसार का सर्वाधिक श्रेय अल्लाउद्दीन खिलजी को जाता है। नयनचन्द्र सूरी द्वारा रचित हमीर महाकाव्य से रणथम्भौर के चौहान शासकों की जानकारी प्राप्त होती है।
जालौर के चौहान
जालौर का प्राचीन नाम ‘जाबालिपुर’ था। जाबालिपुर पर प्रारम्भ में प्रतिहारों ने शासन किया। प्रतिहार कन्नौज चले गए तो बाद में इसे परमारों से छीनकर चौहान वंश कर स्थापना 1181 ई. में किर्तिपाल चौहान ने की। मुहणौत नैणसी {जोधपुर के शासक जसवंत सिंह का दीवान था जिसने दो ग्रंथ 1. मारवाड़ रा परगना री विगत (राजस्थान का गजेटियर) 2. मुहणौत नैणसी री ख्यात (जनगणना का अग्रज) लिखे}, ने कीर्तिपाल के बारे में कहा की ‘कीतू एक महान राजा’ तो जयपुर के मुंशी देवी प्रसाद (कानून की माता) ने मुहणौत नैणसी को ‘राजपूताने का अबूल-फजल’ कहा, क्योंकि उसे पता नहीं था कि अकबर के नवरत्नों में से एक कवि अबुल-फजल भी राजस्थान के नागौर जिले से संबंधित थे। 1177ई. में सामंत सिंह ने कीर्तिपाल चौहान के हाथों पराजित होने के बाद डूँगरपुर राज्य की स्थापना की। दशरथ शर्मा के अनुसार उदयसिंह के पुत्र चाचिगदेव (1257-1282ई.) ने राज्य की सीमा को बढ़ाया, तो वह नसिरूद्दीन महमूद तथा बलवन का समकालिन था, जिन्होंने इसको किसी प्रकार से सताने का साहस नहीं किया।
कान्हड़देव चौहान(1305-1311ई.)- जालौर के चौहान वंश का सबसे प्रतापी शासक ‘कान्हड़देव’ था जिसकी जानकारी पद्मनाभ द्वारा रचित ‘कान्हड़ दे प्रबंध’ से मिलती है। कान्हड़देव के समकालिन दिल्ली सल्तनत का बादशाह अल्लाद्दीन खिलजी (1296-1316ई.)था जिसने साम्राज्यवादी नीति के तहत 1305ई. में एन-उल-मुल्क मुल्तानी के नेतृत्व में जालौर पर आक्रमण के लिए सेना भेजी लेकिन कान्हड़देव व एन-उल-मुल्क मुल्तानी के मध्य समझौता हो गया जिसके तहत् कान्हड़देव ने अपने पुत्र वीरमदेव को अल्लाद्दीन खिलजी के दरबार में नियुक्त कर दिया। वीरमदेव जब दरबार में पहुँचा तो अल्लाउद्दीन की शहजादी फिरोजा ने वीरमदेव को बुलाकर फिरोजा से शादी करने को कहा। वीरमदेव सुबह जवाब देने के लिए कहता हुआ वहाँ से रवाना हुआ और को दिल्ली से भागकर जालौर पहुँचा। सुबह अल्लाउद्दीन को इस बात का पता चला तो वह नाराज हुआ और कमालुद्दीन गुर्ग के नेत ृत्व में जालौर पर आक्रमण के लिए सेना भेजी। जालौर के मार्ग में सिवाना का दुर्ग पड़ता है, अतः पहले अल्लाउद्दीन खिलजी ने 1308ई. में सिवाना का दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीता और उसका नाम ‘खैराबाद’ रख कमालुद्दीन गुर्ग को वहाँ का दुर्ग रक्षक नियुक्त कर दिया। वीर सातल और सोम वीरगति को प्राप्त हुए। सन् 1311 ई. में अल्लाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर आक्रमण किया और कई दिनों के घेरे के बाद अंतिम युद्ध में अल्लाउद्दीन की विजय हुई और सभी राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। वीर कान्हड़देव सोनगरा और वीरमदेव युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अल्लाउद्दीन ने इस जीत के बाद जालौर में एक मस्जिद का निर्माण करवाया। इस युद्ध की जानकारी पद्मनाभ के ग्रन्थ कान्हड़दे प्रबंध तथा वीरमदेव सोनगरा की वात में मिलती हैं।
हाड़ौती के चौहान
राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी भाग (कोटा, बूंदी, बारां व झालावाड़) को हाड़ोती के नाम से जाना जाता है, जो कि पहले मीणाओं के अधीन था। 1241 ई. में देवसिंह ने शासक जैता मीणा को पराजित कर बूंदी व उसके पुत्र समर सिंह ने 1273 ई. में काटिया भील को पराजित कर कोटा प्राप्त किया था। बूंदी राज्य पर सुर्जन हाड़ा, राव भोज, राव रतन, राव शत्रुशाल आदि शासकों ने शासन किया। दानशीलता के लिए प्रसिद्ध सुर्जन हाड़ा के शासनकाल में चन्द्रशेखर ने सुर्जन चरित्र की रचना की थी, तो राव रतन न्यायप्रिय राजा था जिसने अपने पुत्र को ही माफ नहीं किया था। हुंजा नामक घोड़ा बूंदी के उम्मेद सिंह का था।
1631 ई. में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने कोटा को बूंदी से स्वतंत्र कर बूंदी के शासक रतन सिंह के पुत्र माधोसिंह को कोटा का शासक बनाया था, तभी से कोटा स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। माधोसिंह ने शासन कर एक छोटे से राज्य को फेलाकर 43 परगनों में विभाजित किया। माधोसिंह के द्वारा पाटनपोल, कैथूनीपोल आदि ईमारतों का निर्माण करवाया गया। इसके पश्चात् राव मुकन्द सिंह, राव जगत सिंह, राव किशोर सिंह, राव रामसिंह, महाराव भीमसिंह, महाराव अर्जुनसिंह, राव दुर्जनशाल आदि ने शासन किया। किशनगंज कस्बा राव किशोर सिंह के द्वारा बसाया गया था तो वहीं महाराव भीमसिंह के शासनकाल में भीमविलास, श्री ब्रजनाथ व आशापुरा जी का मन्दिर, भीमगढ़ किले का निर्माण हुआ। झाला जालिमसिंह (1779-1823ई.) ने 1817 ई. में कोटा राज्य की ओर से ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली। अंग्रेंजों द्वारा 29 फरवरी, 1818 को कोटा के साथ की गई गुप्त संधि के अनुसार राज्य के प्रशासनिक अधिकारों का प्रयोग झाला जालिमसिंह एवं उसके वंशज करेंगे तथा महाराव उम्मेदसिंह एवं उसके वंशज राज्य के शासक बने रहेंगे। महाराव किशोर सिंह इस संधि को रद्द कर स्वंय सŸा हाथ में लेकर शासन करना चाहते थे, जबकि जालिमसिंह अपने अधिकार छोड़ने को तैयार नहीं था। अतः अक्टूबर, 1821 ई. में महाराव किशोर सिंह और झाला जालिमसिंह के बीच बारां के पास मांगरोल नामक स्थान पर युद्ध हुआ। अंग्रेजो ने इस युद्ध में कोटा महाराव के विरूद्ध झाला जालिमसिंह को सहायता दी थी। युद्ध के बाद मेवाड़ महाराणा भीमसिंह की मध्यस्थता से किशोरसिंह एवं जालिमसिंह के मध्य 22 नवम्बर, 1821 को एक समझौता हो गया, जिसके अनुसार महाराव के निजी कार्यों में झाला जालिमसिंह हस्तक्षेप नहीं करेगा झाला के राजकाज में महाराव का हस्तक्षेप नहीं होगा। इस युद्ध के जरिए कोटा महाराव की शक्तिहीनता जाहिर हो गई।प्रत्यक्ष रूप में जालिमसिंह सŸा का सर्वेसर्वा हो गया। वह कोटा का फोजदार, महान कूटनीतिज्ञ व राजनेता था। मराठों, अंग्रेजों व पिण्डारियों से अच्छे संबंध होने के कारण कोटा इनसे बचा रहा। अंग्रेजों ने कोटा के प्रमुख शासक झाला जालिमसिंह के पौत्र मदनसिंह के लिए 1838ई. में कोटा से अलग कर झालावाड़ को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया। उल्लेखनिय है कि झालावाड़ राजस्थान में अंग्रेजों द्वारा बनाई गई आखिरी रियासत थी, जिसकी राजधानी झालरापाटन को बनाया गया था।
नाडौल के चौहान
शाकम्भरी नरेश वाक्पति के पुत्र लक्ष्मण चौहान ने 960ई. के लगभग चावड़ा राजपूतों के आधिपत्य से अपने आप को स्वतंत्र कर नाडौल के चौहान वंश का शासन स्थापित किया। शाकम्भरी के चौहानों के बाद यह प्रथम चौहान राज्य था। 1177ई. के लगभग इस शाखा के कीर्तिपाल चौहान ने मेवाड़ के शासक सामन्त सिंह को पराजित कर मेवाड़ को अपने अधीन कर लिया था। 1205 ई. में नाड़ौल के चौहान जालौर की चौहान शाखा में मिल गए।
ध्यातव्य रहे- औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर ने 1 जनवरी, 1681 ई. को नाडौल (पाली) में स्वयं को भारत का सम्राट घोषित कर स्वयं के नाम के सिक्के एवं खुतबा जारी किया था।
सिरोही के चौहान
1311 ई. के लगभग चौहानों की देवड़ा शाखा के लुम्बा द्वारा इसकी स्थापना की गई जिसकी राजधानी चन्द्रानती थी। यहाँ के शासक सहसमल ने 1425 ई. के लगभग सिरोही नगर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया। 1823 ई. में यहाँ के शासक शिवसिंह ने ईस्ट इण्डिया से संधि कर राज्य की सुरक्षा का जिम्मा उसे सौंप दिया। स्वतंत्रता के बाद 26 जनवरी, 1950 में सिरोही राज्य राजस्थान में मिला दिया गया।

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